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नियुक्त करके उसे गेयकरे की समृद्ध जागीर प्रदान की थी। उसके अनुज कुमार इन्दगरस बोडेयर अपरनाम इम्मडिसालुवेन्द्र ने 1490 ई. में संगीतपुर में निवास करते हुए उक्त पन द्वारा निर्मापित चैत्यालय को भूमिदान दिया था। इसी शुद्ध सम्यक्त्व रत्नाकर महामण्डलेश्वर इन्दगरत घोडेयर ने अपनी राजधानी में रहते हुए 1416 ई. में स्वकीय पुण्य के लिए बणपुर (बिदिरूर) की वर्धमान-स्वामीबसदि के अंग-रंग-नैवेद्य-नित्य-नैमित्तिक-शिवपूजा आदि के लिए हिरण्योदक धारापूर्वक प्रभूत भूमिदान दिया था और पूर्वकाल में दिये गये दानों की पुनरावृत्ति की थी। वह अपनी शूरवीरता के लिए प्रसिद्ध था।
मन्त्री पचनाम-पद्यसेष्टि, पदुपण या पद्यनाम संगीतपुर के नरेशों का धर्मात्मा प्रधान मन्दी राह खोरबाटोहिम्म) और मारदा का यह। पद्मा और मल्लिका नाम की उसकी दी पतिपरायणा प्रिय पलियाँ थीं। महाराज सालुवेन्द्र का बह कृपापात्र एवं मुख्य मन्त्री था, भगवान पार्श्वजिनेन्द्र का परम भक्त और श्रवणबेलगोल के पण्डिताचार्य का प्रिय शिष्य था। वह सुगुणसद्म, हितनान्त, प्रिय-सत्यवाद-निपुण, धर्मार्थ-सम्पादक, चतुर, सच्चरित्र, दयाहृदय, शास्त्रज्ञ और राजधर्म-विज्ञ था। जिनचरणों में अपना मस्तक रख, जिन-सिम्बदर्शन में अपने क्षेत्रों को लगा, जिनशास्त्रों के श्रवण में अपने कानों को उपयुक्त कर, जिमस्तपन में जिला का उपयोग कर, चिदात्म-भावना में मन को लगा और पात्रदान में अपने हाथों को प्रयुक्त कर वह महामन्त्री पक्षण स्वयं को धन्य मानता था। उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराज सालुपेन्द्र में 1487 ई. में उसे ओगेयरे का समृद्ध ग्राम जाधर में दिया था। महाराज उसे अपने परिवार का सदस्य जैसा ही मानते थे और सम्भवतया यह राज्यवंश में ही उत्पन्न हुआ था। अपनी जागीर के उक्त ग्राम में पटुमणसेटि ने एक सुन्दर जिमालय बनवाकर उसमें पाय तीर्थेश्वर की प्रतिष्ठापना की और उसकी नित्य त्रिकाल अभिषेक-पूजा, कीर्ति की पूजा, नन्दीश्वर, अष्टाडिक, शिवरात्रि, अक्षयतृतीया. श्रुतपंचमी, जीवदयाष्टमी, भगवान पार्श्व के गर्भायतरण, जम्माभिषेक, दीक्षा, केवल-झान और निर्याण-प्राप्ति नामक पंचकल्याणको के पूजोत्सव करने, तपस्वियों के आहारदान, पूजकों की वृत्ति आदि की सुव्यवस्था के लिए उसने ३५॥ ई. में महाराज इन्दगरस वोडेयर से एक शासनपत्र लिखावा, जिसमें राज्य में स्वशासित ओगेयकरे के मौलिक अधिकारों की प्राप्ति तथा उपर्युक्त उद्देश्यों से किये प्रभूत उक्त ग्राम एवं अन्य दानों की विगत थी। चैत्यालय के उत्तर की और एक सुदृढ़ मकान बनवाकर ये शासनपत्र उसमें सुरक्षित रखे गये और उसके अन्त में दातार ने लिखा था कि मेरी मृत्यु के एक हजार वर्ष पश्चात् ही मेरे यंशज इस मकान पर अधिकार कर सकते हैं, किन्तु तब भी प्रदास जायदाद की आय से उक्त धर्मकार्यों का संचालन करते रहेंगे-प्रत्येक मद का खर्च व्यवस्थित कर दिया गया है। ऐसी विचित्र पक्की वसीयत करते हुए शायद यह बुद्धिमान मन्त्री संसार की क्ष-भंगुरता
पध्यकाल : पूर्वाध :: 295