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________________ अन्य अनेक तत्कालीन नरेशों की सभा में वाद-विजय करके वह सम्मानित हुए थे। प राजे विजयनगर सम्राट के सामन्त उपराजे थे और उनमें से अनेक जैनधर्मानुयायी है। इस नरेश के आश्रय में अनेक जैन विद्वानों के कन्नड साहित्य की मी सराहनीय भिवृद्धि की थी। कृष्णदेवराय के उसराधिकारी अच्युतराय (1530-42 ई.) के समय में 1531 7. में मुदगिरि की जैन धसदि को तथा 1533-34 ई. में तमिलदेश की कुछ यसदियों को दान दिये गये थे और 1539 ई. में सालुदराज ने गोम्मटेश का महा-मस्तकाभिषेक महोत्सव मनाया था जिसमें उसके आश्रित गेरुसप्पे के जैन सेठों का प्रमुख योगदान था 1 उस समय से श्रवणबेलगोल तीर्थ का प्रबन्ध भी उक्त सेटों के हाथ में चला गया। अध्युतराय के उत्तराधिकारी सदाशिव राय के शासनारम्भ में ही 1542-13 ई. तुलवदेश की कतिपय यसदियों को दान दिये गये और 1544 ई. में श्रवण-घेलगोल के आचार्य अभिनवचारूकीर्ति पण्डितदेव के शिष्य शान्तिकालिदिव ने अंजनगिरि पर 11 शासन अंकित कराया था, जिसके अनुसार 1531 ई. में सुवर्णवती नदी से शान्तिनाथ एवं अनन्तनाथ की जो प्रतिमाएँ प्रकट हुई थी उन्हें अंजनगिरि पर एक नकड़ी की असदि बनाकर विराजमान कर दिया गया था। अगले वर्ष वहीं पाषाण ही बसदि की नींव डाली गयी जो 1543 ई. में बनकर पूर्ण हुई और तदनन्तर उक्त पुरुषों ने उसकी प्रतिष्ठा करायी थी। इन राज्यकालों में भी कन्नड़ भाषा के कई प्रसिद्ध जैन साहित्यकार हुए। विजयनगर के पतनकाल में भी संगीतपुर के सालुय, कार्कल के भैरवत, बेगूर के अजिल, उल्लाल के चौट, विलिकेरे के अरसु, बारकुरु के पाण्ड्य, मैसूर के ओडेयर, भगरी के चन्द्रवंशी, बैलगाड के मूल, भूल्कि के सावन्त, श्वेतपुर (बिलिगे) के राजे, इत्यादि लगभग एक दर्जन छोटे-छोटे जैन राम्यवंश कर्णाटक के विभिन्न भागों में विद्यमान थे जो उस काल में तथा आनेवाली (17वीं, 8वीं, 9वीं) शतान्दियों में भी तद्देशीय जैन तीर्थों एवं केन्द्रों का संरक्षण, बसदियों का जीर्णोद्धार, निर्माण और रक्षा, साहित्यरचना, विद्वानों और गुरुओं का पोषण-प्रश्नय करते रहे और उस देश में जैनधर्म को जीवित बनाये रहे। संगीतपुरनरेश सालुवेन्द्र और इन्दगरस-तौलवदेश में काश्यपगोत्र और सोमकल में उत्पन्न महाराज इन्द्रचन्द्र का पुत्र संगिराज था जिसकी रानी का नाम संकराम्बा था। इन दोनों का घुत्र यह महामण्डलेश्वर सालुवेन्द्र महाराज था जो तीर्थंकर चन्द्रप्रभु का भक्त था। वह बड़ा प्रतापी, वीर और रल-त्रय-मणिकरण्वायमान-अन्तःकरण था। वह शास्त्रदानादि विविध दानों के देने में सदा तत्पर रहता था। उसने अनेक भव्य एवं उतुंग जिनालयों, मण्डषों, घण्टियों से युक्त मानस्तम्भों, उद्यानों, प्रस्तर एवं धातुमयी जिनबिम्बों का निर्माण कराके जिनधर्म का संवर्धन किया था। उसने 1487 ई. में पलनायकः धर्मात्मा जैन को अपना मन्त्री 294 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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