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________________ THA अंग-रंग-भोग-संरक्षण हेतु तोटहलि ग्राम का दान दिया था, जिसका नाण गमपर रखा गया। कम्पनगौड वयिनाई का शासक (महाप्रभु था और मसणहणि का नियासी था। उसने स्वर्ग प्राप्ति के उद्देश्य से उक्त धर्म कार्य किया था। उक्त प्राम के साथ तत्सम्बन्धी समस्त चल-अचल सम्पत्ति आय और अधिकार भी प्रदान कर दिये थे। राजा कुलशेखर आलुपेन्द्रदेव पुराने जैन धमांनुयायी आलुपबंश का वह नष हरिहर द्वितीय का सामन्त एवं उपराजा था। यह इतना वैभवशाली था कि रत्न-सिंहासन का था। बाद पार्श्वनाथ भक्त था और 1385 ई. में उसने उक्त तीर्थकर का मन्दिर मूडबिद्री में बनवाया था और दान दिया था। नल्लूर उसकी राजधानी थी। वीर पाण्ड्य पैररस-कार्कल का भैररसचंश सम्भवतया प्राचीन सान्तर राजाओं की सन्तति में से था और प्रारम्भ से अन्त तक जैन धर्मानुयायी रहा। इस काल में ये राजे विजयनगर सम्राटों के सामन्त उपराजे थे और स्वयं को सोमवंशी तथा लिनदसराय का वंशज कहते थे। इस वंश के राजा भैरवेन्द्र (भैरवराज) के पुत्र राजा बीरपाण्ड्य (पाकाराय) ने 1492 ई. की फाल्गुन शुक्ल द्वादशी सोमवार के दिन कार्कल में बाहुबलिस्वामी की विशाल [41 फुट 5 इंच) उत्तुंग मनोहर प्रतिमा निर्माण कराकर प्रतिष्ठापित की थी। इस राजा के गुरु ललितकीर्ति मुनीन्द्र थे, जिनके उपदेश से उसने यह धर्मकार्य किया था। श्रवणबेलगोल के गोमटेश्वर के आय उनकी यही सबसे अधिक विशाल प्रतिमा है। इस महोत्सव में विजयनगर सम्राट् देवराय द्वितीय स्वयं भी सम्मिलिल हुए थे। वीरपाण्ड्य के पितामह पाय भूपाल थे और उनके पिता वीर भैरव थे ! इन दोनों पिता-पुत्रों ने भी 1468 ई. में पारकर के पाच जिनालय के लिए भूमि दान दिया था। उपर्युक्त चौरपाण्ड्य में 148 ई. में स्वनिर्मापित गोग्भटेश मुक्ति के सम्मुख ब्रह्मदेव स्तम्भ बनवाया था और उसपर मनीयाशित फलदायक जिनभक्त ब्रह्मयज्ञ की प्रतिष्ठापना की थी। देवराज द्वितीय के उत्तराधिकारियों के समय में 1451-52 ई. में बारकु राज्य के शासक गोपग ओढ़ेयर ने मुइचिद्री की होसावसदि में भैरादेवी मण्डप बनवाया था और 1472 ई. में महाराज विरूपाक्ष राय के प्रतिनिधि विट्टरस ओडेवर ने उसी बसदि को भूमिदान दिया था। एक सहस्व स्तम्भोंवाला वह जिनमन्दिर अत्यन्त कलापूर्ण है। और त्रिभुवनतिलक-यूडामणि कहलाता है। कहते हैं कि इसके कोई भी दो स्तम्भ एक से नहीं हैं। राज्य के कई नायकों ने 1479 ई. में इदवाण में पार्श्वनाथ जिनालय बनवाया था और अगले वर्ष मलबरखेड़ के नेमिनाथ जिनालय के लिए दान दिया था। श्रवणबेलगोल लीधं की वन्दना करने के लिए उस कारन में सुदर मारवाड़ तक के यात्री आले धे। ऐसे ही एक मारवाड़ी से ने 1485 ई. में वहाँ एक जिननिमा प्रतिष्ठित करायी थी और ! ई. में ऐसे ही एक अन्य सेट ने की थी। अन्य 22 :: प्रमुख हासिक पार पहिली
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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