________________
2.
H
बनवाया था और दान दिया था तथा 1382 ई. में तामिलदेशस्थ तिरूपतिरकुन्त के त्रैलोक्यवल्लभ-जिनालय की पूजा-अवां के लिए महेन्द्रमंगल नामक ग्राम दान किया था। इसी दण्डेश, धरणीश, क्षितीश आदि उपाधिकारी इरुग ने, जी हरिहर महाशय के दण्डाधिनाथ थैच का लोकनन्दन-नन्दन था, बड़ा शुरवीर था, हरिहर भूपत्ति की साम्राज्य लक्ष्मी की शुद्धि करनेवाला था और आचार्य सिंहनन्दि के चरणकमलों का भक्त था। 1385 ई. में कर्णाटक मण्डल के कुन्तल विषय में स्थित विचित्र-रुचिर रनों से विभूषित महानगरी विजयनगर में सुन्दर पाषाणनिर्मित कुन्युनाथ-चैत्यालय निर्माण कराया था। इस आशय का लेख उक्त मन्दिर के सम्मुख दीपस्तम्भ (मानस्तम्म) पर अंकित है। कालान्तर में यही मन्दिर मणिगिति-बसदि (तेलिन का मन्दिर) नाम से प्रसिद्ध हुआ। सम्भव है कि पीछे से किसी तेलिन ने उसका जीर्णोद्धार कराया है। इस सेनापति ने 1387 ई. में गुरु पुष्पसेन को आज्ञा से स्वयं द्वारा निर्मित तामिलदेशस्थ (कांची के निकटस्थ) मन्दिर के सम्मुख एक सुन्दर मण्डप बनवाया था। यह कुशल अभियन्ता भी था। 1394 ई. में एक विशाल सरोवर का उत्कृष्ट बाँध उसने बनवाया था। संस्कृत भाषा का भी यह भारी विद्वान था और उसने 'नानाथरत्नाकर' नामक भावपूर्ण कोष की रचना की थी। वह भारी धनुधरमा यो। चन्द्रकीति के शिष्य ब्राह्मणजातीय जैन मन्त्री कूचिसज आदि उसके सहयोगी थे और स्वयं उसके सहोदर मंगप और बुक्कन राज्य के प्रतिष्ठित मन्त्री एवं इपदनायक थे। सेनापति इरुग के एक साथी दादनाथ गुण्ड ने 1397 ई. के एक शिलालेख में लिखाया था कि 'जिसकी उपासना शैव लोग शिव के रूप में, वेदान्ती ब्रह्म के, बौद्ध बुद्ध के, नैयायिक का के, मीमांसक कर्म के और जिनशासन के अनुयायी अर्हन्त के रूप में करते हैं वे केशवदेव तुम्हारी मनोकामना पूरी करें। यह उस युग के सर्वधर्म-समन्वय का एक उदाहरण है। लन् 1403 ई. में इरुम महाराज हरिहर द्वितीय का महाप्रधान सर्वाधिकारी था। उसके थोड़े समय पश्चात् ही उसकी मृत्यु हो गयी लगती है और उसके दोनों भाइयों की भी, क्योंकि तदनन्तर उन तीनों के बजाय इस इरुग के भतीजे और ममप के पुत्र इरुगप (द्वितीय) और बैचष (द्वितीय) के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इरुम (प्रथम) के उल्लेख 1567 से 1403 तक के प्राप्त होते हैं। इस प्रकार लगभग 36 वर्ष उसने राज्य की सेवा की। हरिहर द्वितीय के शासनकाल में जब राजकुमार बुक्काराय (द्वितीय) राज्य के दक्षिणी भाग का शासक था (1382 ई. के लगभग) तब इसग उसका प्रधान दण्डनायक था और शनैः-शनैः पदोन्नति करते हुए स्वयं सम्राट्र का महाप्रधान सर्वाधिकारी बन गया था।
इरुगप दण्डेश-इरुग, इरुगेन्द्र, इरुगप या पिरुगप इस नाम के और एक ही वंश में उत्पन्न दूसरे जैन महासेनापति थे। वह दण्डाधिनायक महाप्रधान बैच-माधव के पौत्र, महाप्रधान-साधिकारी-इरुग (प्रथम) और दण्डनायक बुक्कन के भलीजे, दण्डनाथ मंगप की भार्या जानकी से उत्पम्म उसके सामुन और दण्डनायक
मध्यकाल : पूर्वाध :: 284