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________________ प्रमाणमीमांसा नापि प्रत्यक्षस्य गोचरः, तस्य वर्तमानविवर्त्तमात्रवृत्तित्वात् । न च दर्शनस्मरणाभ्यामन्यद् ज्ञानं नास्ति, दर्शनस्मरणोत्तरकालभाविनो ज्ञानान्तरस्यानुभूतेः । न चानुभूयमानस्यापलापो युक्तः अतिप्रसङ्गात् । १४-ननु प्रत्यक्षमेवेदं प्रत्यभिज्ञानम् इत्येके । नैवम्,तस्य सन्निहितवार्तमानिका. र्थविषयत्वात् । "सम्बद्धं वर्तमानं च गह्यते चक्षरादिना" (श्लोकवा० सूत्र४श्लो०८४) इति मा स्म विस्मरः । ततो नातीतवर्तमानयोरेकत्वमध्यक्षज्ञानगोचरः। अथ स्मरणसहकृतमिन्द्रियं तदेकत्वविषयं प्रत्यक्षमुपजनयतीति प्रत्यक्षरूपतास्य गीयत इति चेत्, न, स्वविषयविनियमितमूर्तेरिन्द्रियस्य विषयान्तरे सहकारिशतसमवधानेऽप्यप्रवृत्तेः । नहि परिमलस्मरणसहायमपि चक्षुरिन्द्रियमविषये गन्धादौ प्रवर्तते । अविषयश्चातीतवर्तमानावस्थाव्याप्येकं द्रव्यमिन्द्रियाणाम् । नाप्यदृष्टसहकारिसहितमिन्द्रियमेकत्वविषयमिति वक्तुं युक्तम् । उपतादेव हेतोः। किंच, अदृष्टसव्यपेक्षादेवात्मनस्तद्विज्ञानं भवतीति वरं वक्तुं युक्तम् । दृश्यते हि स्वप्नविद्यादिसंस्कृतादात्मनो विषयान्तरेऽपि विशिष्टज्ञानोत्पत्तिः । ननु यथाञ्जनादिसंस्कृतं चक्षुः सातिशयं भवति तथा स्मरणसह प्रत्यभिज्ञान का विषय प्रत्यक्ष के द्वारा भी नहीं जाना जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष सिर्फ वर्तमान पर्याय में ही व्यापार करता है । दर्शन और स्मरण से भिन्न कोई तीसरा ज्ञान नहीं होता' यह तो कहा नहीं जा सकता,क्योंकि स्मरण के पश्चात् होने वाला ज्ञानान्तर अनुभवसिद्ध है । जो अनुभवसिद्ध है उसका अपलाप करना उचित नहीं। ऐसा करने से सब गड़बड़ हो जाएगा। १४-वैशेषिक आदि का कहना है कि प्रत्यभिज्ञान तो प्रत्यक्ष ही है, किन्तु यह कहना उचित नहीं है । प्रत्यक्ष इन्द्रिय-सम्बद्ध और वर्तमानकालीन पदार्थ को ही जानता है । 'चक्षु आदि 'इन्द्रियाँ सम्बद्ध और वर्तमान को ही प्रहण करती हैं' इस विधान को विस्मरण मत करो। अतएव अतीत और वर्तमान में रहा हुआ-एकत्व प्रत्यक्ष का गोचर नहीं हो सकता। शंका-स्मरण की सहायता पाकर इन्द्रिय एकता को विषय करने वाले प्रत्यक्ष को उत्पन्न कर देती है, इस कारण हम प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। समाधान--इन्द्रिय का स्वरूप अपने विषयको जानने तक ही सीमित है । सैकडों सहायक मिल जाने पर भी उसकी विषयान्तर में प्रवृत्ति नहीं हो सकती सुगंध के स्मरण की सहायता पाकर चक्षु इन्द्रिय गंध आदि को नहीं जान सकती, अतीत और वर्तमान अवस्थाओं में रहा हुआ एक द्रव्य इन्द्रियों का विषय नहीं है, अतएव वे उसे कैसे जान सकती हैं ? यह कहना ठीक है कि अदृश्य की सहायता से आत्मा को ही एकत्वविषयक ज्ञान उत्पन्न होता है । स्वप्न तथा विद्या रूप संस्कार वाले आत्मा को विषयान्तर का भी विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, यह बात देखी जाती है। शंका-जैसे अंजन आदि के संयोग से चक्षु सातिशय (विशिष्ट) बन जाती है, उसी प्रकार
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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