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प्रमाणमीमांसा "उपमानं प्रसिद्धार्थसाधात् साध्यसाधनम् । तद्वैधात् प्रमाणं किं स्यात् संज्ञिप्रतिपादनम् ॥"[लघीय ०३. १०] "इदमल्पं महद् दूरमासन्नं प्राशु नेति वा। व्यपेक्षातः समक्षेऽर्थे विकल्पः साधनान्तरम् ॥"[लघीय०३. १२] इति ।
१२-अथ साधर्म्यमुपलक्षणं योगविभागो वा करिष्यत इति चेत्; तहकुशलः सूत्रकारः स्यात्, सूत्रस्य लक्षणरहितत्वात् । यदाहुः
"अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद्विश्वतोमुखम् ।
अस्तोभमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ॥" अस्तोभमनधिकम् ।
१३-ननु 'तत्' इति स्मरणम् 'इदम्' इति प्रत्यक्ष मिति ज्ञानद्वयमेव, न ताभ्यामन्यत् प्रत्यभिज्ञानाख्यं प्रमाणमुत्पश्यामः । नैतद्युक्तम्, स्मरणप्रत्यक्षाभ्यां प्रत्यभिज्ञाविषयस्यार्थस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात् । पूर्वापराकारैकधुरीणं हि द्रव्यं प्रत्यभिज्ञानस्य विषयः । न च तत् स्मरणस्य गोचरस्तस्यानुभूतविषयत्वात् । यदाहुः
पूर्वप्रमितमात्रे हि जायते स इति स्मृतिः।
स एवायमितीयं तु प्रत्यभिज्ञाऽतिरेकिणी ॥"[तत्त्वसं०का० ४५३] 'प्रसिद्ध पदार्थको सदृशता से किसी अप्रसिद्ध पदार्थको जानना यदि उपमानप्रमाण है तो प्रसिद्ध पदार्थ के वैधर्म्य (विलक्षणता) से अप्रसिद्ध पदार्थ को जानने वाला कौन-सा प्रमाण कहलाएगा? 'इसके अतिरिक्त 'यह इससे अल्प है, यह इससे महत् है. यह इस से दूर है, यह इससे लम्बा है, यह इससे लम्बा नहीं है, इस प्रकार के जो सापेक्ष ज्ञान होते हैं, इन्हें भी पृथक् प्रमाण मानना
१२-शंका-साधर्म्य तो नाममात्र है, उससे वैधर्म्य का भी ग्रहण हो जाता है । अथवा उपमानके दो भेद किये जा सकते हैं-साधर्म्य-उपमान और वैधर्म्य-उपमान । ऐसा करने से पूर्वोक्त दोष नहीं रहेगा। समाधान-ऐसा करने से आपके सूत्रकार अकुशल कहलाएंगे, क्योंकि उनका सूत्र, सूत्र के लक्षण से रहित होगा। कहा भी है'जो अल्प अक्षर वाला हो, असंदिग्ध हो, सारयुक्त हो, सर्वतोमुखी हो तथा अधिक अक्षरों से रहित हो, उसी को सूत्रवेत्ता निर्दोष सूत्र कहते हैं।'
१३-शंका-'तत्' (वह) यह स्मरण है और 'इदम्' (यह) प्रत्यक्ष है । ये दो ज्ञान हैं। इनसे अतिरिक्त प्रत्यभिज्ञाननामक कोई प्रमाण मालूम नहीं देता। समाधान-यह कथन युक्तियुक्त नहीं है । प्रत्यभिज्ञान का जो विषय है, उसे स्मग्ण और प्रत्यक्ष नहीं जान सकते । पूर्व और उत्तरकालोन पर्यायों में अवस्थित रहनेवाला द्रव्य एकत्व--प्रत्यभिज्ञान का विषय है । इस द्रव्य को स्मरण तो जान नहीं सकता, क्योंकि वह पूर्वानुभूत वस्तु को हो विषय कर सकता है। कहा भी है-'स्मृति पूर्व ज्ञान वस्तु में वह'इस रूप में उत्पन्न होती है। प्रत्यभिज्ञान उससे भिन्न है, क्योंकि वह 'यह वही है' इस प्रकार (दोनों अवस्थाओं में रहे एकत्व को) जानता है।'
होगा।'