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________________ - ७८ प्रमाणमीमांसा जलाञ्जलिः, तया व्याप्तेरविषयीकरणे तदुत्थानायोगात्; लिङ्गग्रहण-सम्बन्धस्मरणपूर्वकमनुमानमिति हि सर्ववादिसिद्धम् । ततश्च स्मृतिः प्रमाणम्, अनुमानप्रामाण्याम्यथानुपपत्तेरिति सिद्धम् ॥३॥ ९-अथ प्रत्यभिज्ञानं लक्षयतिदर्शनम्मरणसम्भवं तदेवेदं तत्सदृशं तद्द्वलक्षणं तत्प्रति योगीत्यादिसंकलनं प्रत्यभिज्ञानम् ॥४॥ १०-'दर्शनम्' प्रत्यक्षम्, 'स्मरणम्' स्मृतिस्ताम्यां सम्भवो यस्य तत्तथा दर्शनस्मरणकारणकं सङ्कलनाज्ञानं 'प्रत्यभिज्ञानम्' । तस्योल्लेखमाह-'तदेवेदम्, सामान्यनिदेशेन नपुंसकत्वम्, स एवायं घटः, सैवेयं पटी, तदेवेदं कुण्डमिति । 'तत्सदृशः' गोस. दृशो गवयः, 'तद्विलक्षणः' गोविलक्षणो महिषः, 'तत्प्रतियोगि' इदमस्मादल्पं महत् दूरमासन्नं वेत्यादि । 'आदि' ग्रहणात् "रोमशो दन्तुरः श्यामो वामनः पृथुलोचनः । यस्तत्र चिपिटघ्राणस्तं चैत्रमवधारयः ॥"न्यायम• पृ०१४३] का स्मरण होने पर ही अनुमान उत्पन्न होता है, यदि व्याप्ति का स्मरण प्रमाण नहीं है तो उसके आधार पर उत्पन्न होने वाला अनुमान भी कैसे प्रमाण हो सकेगा? यह सिद्धान्त सर्व वादियों को मान्य है कि साधन के ग्रहण से और अविनाभाव (व्याप्ति) के स्मरण से ही अनुमान की उत्पत्ति होती है । इससे सिद्ध हैं कि स्मृति प्रमाण है,अन्यथा अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता॥३। ९- प्राभज्ञान का लक्षण - (सूत्रार्थ)- प्रत्यक्ष और स्मरण से उत्पन्न होने वाला, 'यह वही है, यह उसके सदृश है, यह उससे विलक्षण है यह उससे थोडा, बहत, निकट या दूर है' इत्यादि जोड रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहलाता है ॥४॥ १०-प्रत्यक्ष और स्मरण से उत्पन्न होने वाला संकलनावान (जोडरूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है ।* इसका आकार यों होता है-यह वही है, जैसे यह वही घट है, यह वही पटी है, यह वही कुण्डल है, गौ के सदृश गवई (ऐफ-नी गाय) होता है । गौ से विलक्षण महिष होता है, यह इससे अल्प है, यह इससे महान् है,, यह इससे दूर या समीप है, इत्यादि । सूत्र में प्रहण किये हुए 'इत्यादी' शब्द से अन्य अनेक प्रकार के संकलज्ञानों को भी प्रत्यभिज्ञान प्रकट किया गया है जैसे (क) जिसके शरीर में बहुत रोम हों, लम्बे दांत हों, जो श्यामवर्ण हो, बौना हो, बडीबडी आँखों वाला चपटी नाक वाला हो, उसे 'चैत्र' समझना । *१-कभी कभी अकेले दर्शन से और अकेले स्मरण से भी संकलनज्ञान उत्पन्न हो जाता है, जैसे,-'यह इससे भिन्न है या वह उससे भिन्न है। यहाँ पहला अकेले प्रत्यक्ष से और दूसरा अकेले स्मरण से उत्पन्न होता है।
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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