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________________ प्रमाणमीमांसा । १३३-अयमर्थः-न द्रव्यरूपं न पर्यायरूपं नोभयरूपं वस्तु, येन तत्तत्पक्षभावी दोषः स्यात्,किन्तु स्थित्युत्पादव्ययात्मकं शबलं जात्यन्तरमेव वस्तु । तेन तत्तत्सहकारिसन्निधाने क्रमेण युगपद्वा तां तामर्थक्रियां कुर्वतः सहकारिकृतां चोपकारपरम्परामुपजीवतो भिन्नाभिन्नोपकारादिनोदनानुमोदनाप्रमुदितात्मनः उभयपक्षभाविदोषशङ्का- . कलङ्काकान्दिशीकस्य भावस्य न व्यापकानुपलब्धिबलेनार्थक्रियायाः, नापि तद्व्याप्यसत्त्वस्य निवृत्तिरिति सिद्धं द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु प्रमाणस्य विषयः॥३३॥ १३४-फलमाह फलमर्थप्रकाशः॥३४॥ १३५-'प्रमाणस्य' इति वर्तते, प्रमाणस्य 'फलम्' 'अर्थप्रकाशः' अर्थसंवेदनम् अर्थीि हि सर्वः प्रमातेत्यर्थसंवेदनमेव फलं युक्तम् । नन्वेवं प्रमाणमेव फलत्वेनोक्तं स्यात्, ओमिति चेत् तहि प्रमाणफलयोरभेदः स्यात् । ततः किं स्यात्। प्रमाणफलयोरैक्ये सदसत्पक्षभावी दोषः स्यात्, नासतः करणत्वं न सतः फलत्वम् । सत्यम् अस्त्ययं दोषो जन्मनि न व्यवस्थायाम् । यदाहुः १३३-अभिप्राय यह है कि अनेकान्त मत में वस्तु न केवल द्रव्यात्मक है,न केवल पर्यायास्मक है और न परस्पर भिन्न द्रव्य-पर्यायात्मक है। अनेकान्तपक्ष इन तीनों एकान्त पक्षों से विलक्षण है । अतएव इन पक्षों में आने वाले दोष अनेकान्तपक्ष में लागू नहीं हो सकते । वस्तु वास्तव में स्थिति, उत्पत्ति और व्यय से युक्त एक पृथक्-जातिरूप है। अतएव वह विभिन्न सहकारी कारणों का सन्निधान होने पर क्रम से या युगपत् नाना प्रकार की अर्थक्रियाओं को करती है, सहकारी कारणों द्वारा किये जाने वाले उपकारों की सहायता लेती है । कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न उन उपकार्यों से उसमें सामर्थ्य आता है । अतएव दोनों एकान्त पक्षों में आने वाले दोषों की आशंका के कलंक से वह मुक्त है। इस प्रकार की वस्तु से क्रम और योगपद्य रूप व्यापक की अनुपलब्धि के कारण अर्थक्रिया का और अर्थक्रिया के व्याप्य सत्त्व का अभाव नहीं होता है। • इस प्रकार द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय है, यह सिद्ध हुआ ॥३३॥ . १३४-प्रमाण का फल-(अर्थ)-प्रमाण का फल अर्थ का प्रकाश होता है ॥३४॥ .... १३५-'प्रमाण' को अनुवृत्ति है, अतः प्रमाण का फल अर्थ का ज्ञान होता है। सभी प्रमाता अर्थक्रिया में समर्थ वस्तु को हो जानने के इच्छुक होते हैं अतएव ऐसे पदार्थ का ज्ञान ही प्रमाण का फल होना चाहिए । शंका-ज्ञान ही प्रमाण है और ज्ञान को ही फल माना है,यह तो प्रमाण को ही फल मानना कहलाया। समाधान-हाँ, कहलाया। शंका-तो प्रमाण और फल में भेद नहीं रहा । समाधान--नहीं रहा तो क्या होगया ? - शंका-सदसत्पक्षभावी दोष हो गया। यदि प्रमाण असत् होगा तो वह कार्य-फल काकरण नहीं हो सकेगा और यदि सत् माना जाएगा तो उसे फल कार्य नहीं कहा जा सकता ।समाधानठीक है, उत्पत्ति में यह दोष होता है, व्यवस्था में नहीं । कहा भी है
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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