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प्रास्ताविक
जैन दार्शनिक ग्रन्थों का निर्माण तत्त्वार्थसूत्र से प्रारंभ होता है । तत्त्वार्थसूत्र की रचना में आगमिक परंपरा को व्यवस्थित करने का सर्वप्रथम प्रयत्न हुआ । नतीजा यह हुआ कि उसमें आगमगत सभी विषयों का सक्षेप में निरूपण हुआ । तत्त्वार्थसूत्र की कई टीकाएँ हुईं और उसके बाद कई जैनदर्शन के नये ग्रन्थ भी बने किन्तु समय के अनुसार निरूपण के विषयों में परिवर्तन होता रहा । तत्त्वार्थसूत्र में निरूपित कई विषयों को छोड़ दिया गया और कई आवश्यक नई चर्चाओं का प्रवेश भी हुआ ।
प्रमेयप्रधान निरूपण प्राचीनकाल में था, उसका स्थान प्रमाणप्रधान निरूपण ने लिया । यह परिवर्तन खास कर बौद्धों के प्रमाणसमुच्चय जैसे ग्रन्थों के कारण हुआ । यही कारण है कि तत्त्वार्थ सूत्रगत कई विषयों को छोड़ दिया गया और प्रमाण के विषयरूप में प्रमेय की चर्चा होने लगी, और वह भी तत्त्वार्थ की तरह प्रमेयों की गणना करके नहीं, किन्तु प्रमेय के स्वरूप की ही चर्चा पर्याप्त समझी गयी। इसी परंपरा में न्यायावतार, न्यायविनिश्चय, परीक्षामुख' प्रमाणनयतत्त्वालोक आदि ग्रन्थ बने । प्रमाणमीमांसा भी इसी परंपरा की एक कडी है । आगे चलकर न्यायदीपिका, जैनतर्कभाषा जैसे ग्रन्थ बने ।
मध्यकाल विस्तृत ग्रन्थरचना की प्रवृत्ति बढी है । यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्र की श्लोकवातिक जैसी विस्तृत टीका बनी, प्रमाणनयतत्त्वालोक का स्याद्वादरत्नाकर जैसी सुविस्तृत और परीक्षामुख की प्रमेयकमलमार्तंड जैसी अति विस्तृत टीकाएँ बनीं, नतीजा यह हुआ कि प्रवेशार्थी के लिए कठिनाई उपस्थित हुई । इसी कठिनाई को दूर करने की दृष्टि से न्यायावतावार्तिकवृत्ति, रत्नाकरावतारिका जैसे ग्रन्थ बनने शुरु हुए। इसी दृष्टि से आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा की रचना की । मूल सूत्रों को स्वोपज्ञवृत्ति से अलंकृत करके इसका निर्माण हुआ है । दुर्भाग्य से इसके पांचों अध्याय मिलते नहीं, प्रारंभ के देढ़ अध्याय जितना हो अंश मिलता है । किन्तु जितना अंश मिलता है वह भी जैन दर्शन की प्रमाणमीमांसा को संक्षेप में जानने का अच्छा साधन है इस में संदेह नहीं ।
प्रमाणमीमांसा कई युनिर्वासटियों में और जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड में पाठयग्रन्थ रूप से स्वीकृत है, यही प्रमाण है कि वह जैन दर्शन के लिए एक अच्छी पाठ्यपुस्तक है। उसके कई संस्करण भी हुए हैं । पू. पं. सुखलालजी ने उसके अपने संपादन में तुलनात्मक टिप्पण भी