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________________ प्रमाणमीमांसा १०७-नैयायिकास्तु-"इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्" [ न्यः ० ११, ४ ] इतिप्रत्यक्षलक्षणमाचक्षते । अत्र च पूर्वाचार्यकृतव्याख्यावैमुख्येन सङ्घयावद्भिस्त्रिलोचनवाचस्पतिप्रमुखैरयमर्थः समथितो यथा-इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यभिचारि प्रत्यक्षमित्येव प्रत्यक्षलक्षणम् । 'यतः' शब्दाध्याहारेण च यत्तदोनित्याभिसम्बन्धादुक्तविशेषणविशिष्टं ज्ञानं यतो भवति तत् तथाविधज्ञानसाधनं ज्ञानरूपं अज्ञानरूपं वा प्रत्यक्षं प्रमाणमिति । अस्य च फलभूतस्य ज्ञानस्य द्वयी गतिरविकल्पं सविकल्पं च तयोरुभयोरपि प्रमाणरूपत्वमभिधातुं विभागवचनमेतद् 'अव्यपदेश्य व्यवसायात्मकम्' इति । १०८-तत्रोभयरूपस्यापि ज्ञानस्य प्रामाण्यमुपेक्ष्य 'यतः' शब्दाध्याहारक्लेशेनाज्ञानरूपस्य सन्निकर्षादेः प्रामाण्यसमर्थनमयुक्तम् । कथं ह्यज्ञानरूपाः सन्निकर्षादयोऽर्थपरिच्छित्तौ साधकतमा भवन्ति व्यभिचारात?,सत्यपीन्द्रियार्थसन्निकर्षेऽर्थोपलब्धेरभावात् । नाने सत्येव भावात्, साधकतमं हि करणमव्यवहितफलं च तदिति । १०७--नैयायिकों ने प्रत्यक्ष का लक्षण इस प्रकार कहा है-जो ज्ञान इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न हो, अव्यपदेश्य हो अव्यभिचारी हो, व्यवसायात्मक हो वह प्रत्यक्ष है। इस सूत्र में यद्यपि ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है, तथापि पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा की गई व्याख्या से मुंह मोड कर त्रिलोचन वाचस्पति आदि ने इसका अर्थ यों किया है-'इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होने वाला अव्यभिचारी ज्ञान प्रत्यक्ष है' इतना हा प्रत्यक्ष का लक्षण है। इस लक्षण में 'यतः' शब्द का अध्याहार करना चाहिए । और 'या' तथा 'तत्' शब्द का नित्य सम्बन्ध होता है, अर्थात् जहाँ 'जो' या जिससे आदि पद होते हैं वहाँ सो या 'उससे' आदि का प्रयोग न होने पर भी समझ लिये जाते हैं । इस नियम के अनुसार अर्थ यह निकला कि पूर्वोक्त विशेष वाला ज्ञान जिससे उत्पन्न होता है, वह ज्ञान का साधन हो, चाहे ज्ञानरूप या अज्ञानरूप, प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाता है । इस व्याख्या के अनुसार ज्ञान प्रत्यक्ष न होकर ज्ञान का साधन प्रत्यक्ष कहलाया । ज्ञान का वह साधन अज्ञानरूप हो तो भी प्रत्यक्ष है और ज्ञानरूप हो तो भी प्रत्यक्ष है। इस साधन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान दो ही प्रकार का हो सकता है-निविकल्प और सविकल्प । यह दोनों ही प्रकार के ज्ञान प्रमाण हैं, यह प्रकट करने के लिए 'अव्यपदेश' और 'व्यवसायात्मक' इस प्रकार के दो पदों का प्रयोग किया गया है। १०८-किन्तु दोनों प्रकार के ज्ञानों को प्रमाणता की उपेक्षा करके 'यतः' शब्द के अध्याहार की कष्टकल्पना करके अज्ञानरूप सन्निकर्ष आदि के प्रामाण्य का समर्थन करना योग्य नहीं है। अज्ञानरूप सन्निकर्ष आदि अर्थज्ञप्ति में धितम कैसे हो सकते हैं? उनमें व्यभिचार पाया जाता है क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थ का सन्निकष होने पर भी पदार्थ की उपलब्धि नहीं होती । वह तो ज्ञान के होने पर ही होतो है। जिस कार्यमे जो साधकतम होता है वही करण कहलाता है और उससे कालव्यवधान के विना तत्काल ही कार्य की उत्पत्ति होती है।
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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