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प्रमाणमीमांसा पल्माधनासामर्थ्यज्ञानेच वादिप्रतिवादिनोः कस्य जयः पराजयो वा स्यादविशेषात् । न कस्यचिदिति चेत् तहि साधनवादिनो वचनाधिक्यकारिणः साधनसामर्थ्याज्ञानसिद्धेः प्रतिवादिनश्च वचनाधिक्यदोषोद्धावनात्तद्दोषमात्रज्ञानसिद्धर्न कस्यचिज्जयः पराजयो वा स्यात् । नहि यो यद्दोषं वेत्ति स तद्गुणमपि,कुतश्चिन्मारणशक्तौ वेदने. ऽपि विषद्रव्यस्य कुष्ठापनयनशक्तौ संवेदनानुदयात् । तन्न तत्सामर्थ्यज्ञानाज्ञाननिबन्धनौ जयपराजयौ व्यवस्थापयितुं शक्यौ, यथोक्तदोषानुषङ्गात् स्वपक्षसिद्धयसिद्धिनिबन्धनौ तु तौ निरवद्यौ पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवैयर्थ्याभावात् । कस्यचित् कुतश्चित् स्वपक्षसिद्धौ सुनिश्चितायां परस्य तत्सिद्धयभावतः सकृज्जयपराजयप्रसङ्गात् । - १०९-यच्चेदमदोषोद्भावनमित्यस्य ब्याख्यानम्-प्रसज्यप्रतिषेधे दोषोद्भावनाभावमात्रम्-अदोषोद्भावनम, पर्युदासे तु दोषाभासानामन्यदोषाणां चोद्भावनं प्रतिवादिनो निग्रहस्थानमिति-तत वादिनाऽदोषवति साधने प्रयुक्ते सत्यनुमतमेव यदि वादी
वादी और प्रतिवादी को साधन के सामर्थ्य का ज्ञान हो जाय तो किसकी जय और पराजय होगी? यदि किसी की भी जय-पराजय न मानो तो समीचीन साधन का प्रयोग करने वाले किन्तु वचनाधिक्य करने वाले वादो के साधनसामर्थ्य का अज्ञान सिद्ध होने से तथा वचनाधिक्य दोषमात्र का ही उद्भावन करने वाले प्रतिवादी के सिर्फ वचनाधिक्य का ही ज्ञान सिद्ध होने से (साधनाभास का ज्ञान न होने से) किसी को भी नय या पराजय नहीं होनी चाहिए । यह आवश्यक नहीं कि जो जिसके दोष को जानता है वह उसके गुण को भी अवश्य जाने । विष में प्राणघात की शक्ति होती है और कुष्ठ रोग का निवारण करने की भी। किन्तु संभव है कोई उसको प्राणघातक शक्ति को तो जाने किन्तु कुष्ठनिवारण शक्ति से अनजान रहे । अतएव पूर्वोक्त दोषों के कारण साधन के सामर्थ्य के ज्ञान और अज्ञान के आधार पर जय और पराजय की व्यवस्था नहीं मानी जा सकती। स्वपक्ष की सिद्धि और असिद्ध के कारण हो जय-पराजय की व्यवस्था मानना निर्दोष है । ऐसा मानने से पक्ष-प्रतिपक्ष को ग्रहण करना व्यर्थ नहीं होता। किसी हेतु से किसी के पक्ष की सिद्धि सुनिश्चित हो जाने ओर दूसरे के पक्ष की सिद्धि का अभाव होने पर जय-पराजय हो सकती है ।
१०९-बौद्धसम्मत दूसरे निग्रहस्थान 'अदोषोभावन' की व्याख्या प्रसज्य और पर्यदास पक्ष में दो प्रकार से होती है। प्रसज्य पक्ष में 'अदोषोभावन' का अर्थ है-दोष का उद्भावन नहीं करना और पर्युदास पक्ष में अर्थ है-दोषाभासों या अन्य दोषों का उद्भावन करना । यह प्रतिवादी के लिए निग्रहस्थान है । अगर वादी ने निर्दोष साधन का प्रयोग किया हो और वह अपने पक्ष की सिद्धि कर ले तो यह निग्रहस्थान हमें भी स्वीकार ही है ( क्योंकि वादी जब निर्दोष साधन का प्रयोग कर रहा है और प्रतिवादी उसमें दोष का उद्भावन नहीं करता या दोषाभास का उद्भावन करता है तो प्रतिवादी से पराजित होगा ही।), हाँ, यदि वादी भी