SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणमीमांसा साधने दूषणं दूषणे चोद्धरणं तयोरकरणम् 'अप्रतिपत्तिः । द्विधा हि वादी पराजीयतेयथाकर्तव्यमप्रतिपद्यमानो विपरीतं वा प्रतिपद्यमान इति । विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्ती एव 'विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्तिमात्रम्' 'न' पराजयहेतुः किन्तु स्वपक्षस्यासिद्धिरेवेति । विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्त्योश्च निग्रहस्थानत्वनिरासात् तद्भेदानामपि निग्रहस्थानत्वं निरस्तम् । ७९-ते च द्वाविंशतिर्भवन्ति । तद्यथा-१ प्रतिज्ञाहानिः, २ प्रतिज्ञान्तरम्, ३ प्रतिज्ञाविरोधः, ४ प्रतिज्ञासंन्यासः, ५ हेत्वन्तरम्, ६ अर्थान्तरम्, ७ निरर्थकम, ८ अविज्ञातार्थम्, ९ अपार्थकम्, १० अप्राप्तकालम्, ११ न्यूनम्, १२ अधिकम्, १३ पुनरुक्तम्, १४ अननुभाषणम्, १५ अज्ञानम्,१६ अप्रतिभा, १७ विक्षेपः, १८ मतानुज्ञा, १९ पर्यनुयोज्योपेक्षणम्, २० निरनुयोज्यानुयोगः, २१ अपसिद्धान्तः, २२ हेत्वाभासाश्चेति । अत्राननुभाषणमज्ञानमप्रतिभा विक्षेपः पर्यनुयोज्योपेक्षणमित्यप्रतिपत्तिप्रकाराः । शेषा विप्रतिपत्तिभेदाः । ८०-तत्र प्रतिज्ञाहानेर्लक्षणम्-"प्रतिदृष्टान्तधर्मानुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः" (न्ययसू ०.५. २, २.) इति सूत्रम् । अस्य भास्यकरीयं व्यख्यानम्-“साध्यधर्मप्रत्यनीकेन धर्मेण प्रत्यवस्थितःप्रतिदृष्टान्तधर्म स्वदृष्टान्तेऽनुजानन् प्रतिज्ञां जहातीति प्रतिज्ञाहानिः । यथाअनित्यः शब्दः ऐन्द्रियकत्वाद् घटवदित्युक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते-सामान्यकरना और दिये हुए दोष का उधार न करना अप्रतिपत्ति है। वादी का पराजय दो प्रकार से होता है- अपने कर्तव्य को पूरा न करने से अथवा विपरीत रूप से पूरा करने से यह विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति मात्र पराजय का कारण नहीं है किन्तु अपने पक्ष को असिद्धि ही पराजय है। यहाँ विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति की निग्रहस्थानता का निषेध करने से यह भी सिद्ध हो जाता है कि इनके भेद भी निग्रहस्थान नहीं हैं। ७९--विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति के भेदरूप निग्रहस्थान बाईस हैं। यथा--(१)प्रतिज्ञाहानि (२) प्रतिज्ञान्तर (३) प्रतिज्ञाविरध (४) प्रतिज्ञासंन्यास (५) हेत्वन्तर (६) अर्थान्तर (७) निरर्थक (८) अविज्ञातार्थ (९) अपार्थक (१०) अप्राप्तकाल (११) न्यन (१२) अधिक (१३) पुनरुक्त (१४) अननुभाषण (१५) अज्ञान (१६) अप्रतिभा (१७) विक्षेप (१८) मतानुज्ञा (११) पर्यनुयोज्योपेक्षण (२०) निरनुयोज्यानुयोग (२१) अपसिद्धान्त (२२) हेत्वाभास । ___ इन बाईस में से अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप और पर्यनुयोज्योपेक्षण अप्रतिपत्ति के भेद हैं। ....८०--प्रतिज्ञाहानि-'प्रतिदृष्टान्तधर्मानुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः' अर्थात् प्रतिदृष्टान्त के धर्म को अपने दृष्टान्त में स्वीकार कर लेना प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थान है। इस निग्रहस्थान की व्याख्या न्यायसूत्र के भाष्यकार ने इस प्रकार की है-जब प्रतिवादी साध्यधर्म के विरोधी किसी धर्म से वादी के (हेतु का निराकरण) करे तब वादी विरोधी दृष्टान्त के धर्म को अपने दृष्टान्त में स्वीकार कर ले तो वह अपनी प्रतिज्ञा का परित्याग करता है, इस कारण प्रतिज्ञाहानि होती है। यथा-वादी ने प्रयोग किया-'शब्द अनित्य है, क्योंकि वह इन्द्रिय का विषय है, जो इन्द्रिय
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy