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________________ प्रमाणमीमांसा १७ साधनस्योक्तत्वात् । यदाह-"विरुद्धं हेतुमुद्भाव्य वादिनं जयतीतरः" इति ॥३१॥ असिद्धिः पराजयः ॥३२॥ ७४-वादिनः प्रतिवादिनो वा या स्वपक्षस्य 'असिद्धिः सा 'पराजयः । साच साधनाभासाभिधानात्, सम्यक्साधनेऽपि वा परोक्तदूषणानुद्धरणाद्भवति ॥३२॥ ७५-ननु यद्यसिद्धिः पराजयः, स तहि कीदृशो निग्रहः ?, निग्रहान्ता हि कथा भवतीत्याह स निग्रहो वादिप्रतिवादिनोः ॥३३॥ ७६-'स' पराजय एव 'वादिप्रतिवादिनो' 'निग्रहः' न वधबन्धादिः। अथवा स एव स्वपक्षासिद्धिरूपः पराजयो निग्रहहेतुत्वान्निग्रहो नान्यो यथाहुः परे-विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम्” (न्यायसू० १. २. १९) इति ॥३३॥ ७७--तत्राह न विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्तिमात्रम् ॥३४॥ ७८-विपरीता कुत्सिता विगर्हणीया प्रतिपत्तिः 'विप्रतिपत्तिः'-साधनाभासे साधनबुद्धिर्दूषणाभासे च दूषणबुद्धिः । अप्रतिपत्तिस्त्वारम्भविषयेऽनारम्भः । स च द्धता का उभावन करना ही एक प्रकार से स्वपक्ष में साधन का प्रयोग करना है। कहा भी है-'विरुद्ध हेतु का उद्भावन करके प्रतिवादी वादी को जीत लेता है' आदि॥३१॥ सूत्रार्थ-स्वपक्ष की सिद्धि न होना ही पराजय है ॥३२॥ ७४-वादी या प्रतिवादी के अपने पक्ष को जो असिद्धि है, वही पराजय है । वह असिद्धि या पराजय साधन के बदले साधनाभास का प्रयोग करने से अथवा समीचीन साधन का प्रयोग करने पर भी परोक्त दूषण का निवारण न करने से होती है ॥३२॥ ७५-शंका-यदि असिद्धि ही पराजय है तो निग्रह कैसा होता है ? वाद निग्रहान्त होता है अर्थात् वादी या प्रतिवादी जब निग्रहस्थान को प्राप्त होता है तभी वाद को समाप्ति हो जाती है। इस शंका का समाधान करने के लिए कहा गया है सूत्रार्थ-पराजय ही वादी और प्रतिवादी का निग्रह है ॥३३। ७६-वादी अथवा प्रतिवादी का पराजय होना ही निग्रह है, बध या बन्धन नहीं । अथवा अपने पक्ष की सिद्धि न होने रूप पराजय ही निग्रह का कारण होने से निग्रह कहलाता है। इससे भिन्न कोई निग्रह नहीं है, जैसा कि दूसरे (नैयायिक) कहते हैं- विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति निग्रहस्थान हैं ॥३३॥ ७७-इस विषय में कहा गया है-सूत्रार्थ-विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति मात्र निग्रहस्थान नहीं हैं ३४ ७८-विपरीत-कुत्सित या विगर्हणीय प्रतिपत्ति को अर्थात् उलटी समझ को विप्रतिपत्ति कहते हैं । साधनाभास को साधन समझ बैठना और दूषणाभास को स्वच्छ वास्तविक दूषण समझ लेमा विप्रतिपत्ति है । जो करना चाहिए उसे न करना अर्थात् विरोधी पक्ष के साधन को दुषितम
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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