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________________ प्रमाणमीमांसा १४५ 'कथात्वं लभते तथापि न वादादर्थान्तरम्, वादेनैव चरितार्थत्वात् । छलजातिनिन· हस्थानभूयस्त्वयोगादचरितार्थ इति चेत् न, छलजातिप्रयोगस्य दूषणाभासत्वेनाप्रयोज्यत्वात्, निग्रहस्थानानां च वादेप्यविरुद्धत्वात् न खलु खटचपेटामुखबन्धादयोऽनु. चिता निग्रहा जल्पेऽप्युपयुज्यन्ते । उचितानां च निग्रहस्थानानां वादेऽपि न विरोधो. ऽस्ति । तन्न वादात् जल्पस्य कश्चिद् विशेषोऽस्ति । लाभपूजाख्यातिकामितादीनि तु प्रयोजनानि तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणलक्षणप्रधानफलानुबन्धीनि पुरुषधर्मत्वाद्वादेऽपि न निवारयितुं पार्यन्ते । ___७१-ननु छलजातिप्रयोगोऽसदुत्तरत्वाद्वादे न भवति, जल्पे तु तस्यानुज्ञानादस्ति वादजल्पयोविशेषः । यदाह "दुःशिक्षितकुतर्काशलेशवाचालिताननाः । शक्याः किमन्यथा जेतुं वितण्डाटोपपण्डिताः ॥ . गतानुगतिको लोकः कुमार्ग तत्प्रतारितः । . मा गादिति च्छलादीनि प्राह कारुणिको मनिः"॥ इति (न्या.म.पृ.११) वादी दोनों स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण करते हैं इस कारण वह कथा तो अवश्य है परन्तु वाद से भिन्न नहीं है । उसका समावेश वाद में ही हो जाता है। शंका-- जल्प में छल, जाति और निग्रहस्थान की प्रचुरता रहती है, इस कारण उसका वाद में समावेश नहीं हो सकता, समाधान-नहीं । छल और जाति वस्तुतः दूषणामास हैं । अतएव उनके प्रयोगमात्र से जल्प को वाद से पृथक् नहीं किया जा सकता । रह गए निग्रहस्थान, सो उनका प्रयोग तो वाद में भी किया जा सकता है । निग्रह दो प्रकार के होते हैं-अनुचित और उचित । थप्पड मारना, प्रतिवादी का मुंह बंद कर देना आदि अनुचित निग्रह हैं । जल्प में भी इनका प्रयोग नहीं किया जाता है । उचित निग्रहस्थानों का प्रयोग वाद में भी होता ही है । इस कारण वाद और जल्प में कोई विशेषता नहीं है. जिससे दोनों को पृथक् पृथक् कथा स्वीकार किया जाए। लाम, पूजा अथवा ख्याति की कामना आदि प्रयोजन तत्त्व निश्चय के संरक्षण रूप प्रधान फल के अनुजीवी हैं। ये पुरुष के धर्म है । अतएव वाद में भी इन्हें रोका नहीं जा सकता। तात्पर्य यह है कि लाभ आदि प्रयोजन जल्प में होते हों और वाद में न होते हों, ऐसी बात नहीं है । अतएव इस आधार पर भी दोनों में भेद नहीं किया जा सकता। ___७१-शंका-छल और जाति का प्रयोग असत् उत्तर होने के कारण वाद में नहीं किया जा सकता, किन्तु जल्प में उनके प्रयोग की अनुमति दी गई है । इस कारण वाद और जल्प में भेद है। कहा भी है जिन्होंने दुःशिक्षा पाई है, जो थोड़ा-सा कुतर्क का अंश सीख कर वाचाल बने हुए हैं और वितण्डा के आडम्बर से युक्त हैं, वे क्या अन्यथा अर्थात् छल जाति आदि के विना जीते जा सकते हैं? कदापि नहीं।'
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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