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________________ १४४ प्रमाणमीमांसा . ६९-ननु तत्त्वरक्षणं जल्पस्य वितण्डाया वा प्रयोजनम् । यदाह-"तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थ जल्पवितण्डे बीजप्ररोहसंरक्षणार्थ कण्टकशाखापरिचरणवत् (न्यायसू - ४ २.५० ) इति ; न. वादस्यापि निग्रहस्थानवत्त्वेन तत्त्वसंरक्षणार्थत्वात् न चास्य निग्रहस्थानवत्त्वमसिद्धम् । “प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः ( न्यायसू० १, २, १ ) इति वादलक्षणे सिद्धान्तादिरुद्ध इत्यनेनापसिद्धान्तस्य, पञ्चावयवोपपन्न इत्यनेन न्यूनाधिकयोर्हेत्वाभासपञ्चकस्य चेत्यष्टानां निग्रहस्थानानामनुज्ञानात्, तेषां च निग्रहस्थानान्तरोपलक्षणत्वात् । अत एव न जल्पवितण्डे कथे, वादस्यैव तत्त्वसंरक्षणार्थत्वात् । ७०-ननु “यथोक्तोपपन्नच्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः” (न्या १.२, २) “स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा" (न्या १, २, ३' इति लक्षणे भेदाज्जल्पवितण्डे अपि कथे विद्यते एव? न; प्रतिपक्षस्थापनाहीनाया वितण्डायाः कथात्वायोगात् । वैतण्डिको हि स्वपक्षमभ्युपगम्यास्थापयन् यत्किचिद्वादेन परपक्षमेव दूषयन् कथमवधेयवचनः? । जल्पस्तु यद्यपि द्वयोरपि वादिप्रतिवादिनोः साधनोपालम्भसम्भावनया होने लगा हो । अपने आपको पण्डित मानने वाले लोगों के द्वारा उत्पन्न किये गये विकल्पों की कल्पना से उसकी रक्षा करना ही वाद का प्रयोजन है (कोति या अर्थलाभ आदि नहीं।) ६९-शंका-तत्त्व की रक्षा करना जल्प या वितण्ड का प्रयोजन है । न्यायसूत्र में कहा हैजैसे धान्य के अंकुरों की रक्षा के लिए कांटों को वाड खेत के चारों तरफ लगाई जाती है. उसी प्रकार तत्त्वनिश्चय की रक्षा के लिए जल्प और वितण्डा का उपयोग किया जाता है। समाधानऐसा कहना ठीक नहीं । वाद का प्रयोजन भी तत्त्वसंरक्षण करना है, क्योंकि वह भी निग्रहस्थान वाला होता है । वाद निग्रहस्थान वाला होता है, यह असिद्ध नहीं है । न्यायसूत्र में वाद का लक्षण यों दिया है-'प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पंचावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिप्रहो वादः ।' वाद के इस लक्षण में 'सिद्धान्ताविरुद्ध' इस पद से अपसिद्धान्त नामक निग्रहस्थान को, 'पंचावयवोपपन्नः' इस पद से न्यून और अधिक निग्रहस्थानों को और पांच प्रकार के हेत्वाभासों को, इस प्रकार आठ निग्रहस्थानों को स्वीकार किया है। यह आठ निग्रहस्थान दूसरे शेष निग्रहस्थानों के उपलक्षण हैं । अतएव जल्प और वितण्डा कथा नहीं हैं, केवल वाद ही तत्त्व के संरक्षण के लिए होता है। ७०-शंका-जिसमें छल, जाति, निग्रहस्थान, साधन और दूषण का प्रयोग हो वह जल्प कहलाता है । वही जल्प जब प्रतिपक्ष की स्थापना से रहित हो तो वितण्डा कहलाता है । इस प्रकार जल्प और वितण्डा का लक्षण अलग-अलग है, अतः ये दोनों भी कथाएं ही हैं। समाधानप्रतिपक्ष की स्थापना से रहित वितण्डा को कथा नहीं कहा जा सकता। बितण्डावादी अपने पक्ष को स्वीकार करके भी उसे सिद्ध नहीं करता, वह यद्वा तद्वा बोलकर केवल परपक्ष को ही दूषित करता है । अतएव उसका कथन उपादेय कैसे हो सकता है? हाँ,जल्प में वादी और प्रति
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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