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प्रमाणमीमांसा
उपलम्भान्तरसम्भावने चानवस्था । अर्थोपलम्भात् तस्योपलम्भे अन्योन्याश्रयदोषः । एतेन 'अर्थस्य सम्भवो नोपपद्यत न चेत् ज्ञानं स्यात्'इत्यर्थापत्त्यापि तदुपलम्भः प्रत्युक्तः, तस्या अपि ज्ञापकत्वेनाज्ञाताया ज्ञापकत्वायोगात् । अर्थापत्त्यन्तरात् तज्ज्ञाने अनवस्थेतरेतराश्रयदोषापत्तेस्तदवस्थः परिभवः। तस्मादर्थोन्मुखतयेव स्वोन्मुखतयापि ज्ञानस्य प्रतिभासात् स्वनिर्णयात्मकत्वमप्यस्ति । ननु अनुभूतेरनुभाव्यत्वे घटादिवदननुभूतित्वप्रसंगः, मैवं वोचः; ज्ञातुः ज्ञातृत्वेनेव अनुभूतेरनुभूतित्वेनैवानुभवात् । न चानुभूतेरनुभाव्यत्वं दोषः; अर्थापेक्षयानुभूतित्वात् स्वापेक्षयाऽनुभाव्यत्वात्, स्वपितृपुत्रापेक्षयैकस्य पुत्रत्वपितृत्ववत् विरोधाभावात् । न च स्वात्मनि क्रियाविरोधः, अनुमद सिद्धेऽर्थे
दूसरे ज्ञान को जानने के लिए यदि तीसरे ज्ञान को आवश्यकता मानी जाय तो ऐसा मानने से अनवस्था दोष हो जायगा । यदि प्रथम ज्ञान (अर्थ का ज्ञान) दूसरे (ज्ञान के ज्ञान)को और दूसरा प्रथम को जान लेता है. ऐसी कल्पना को जाय तो अन्योन्याश्रय दोष आता है । अर्थात् स्वयं अज्ञात होने के कारण प्रथम ज्ञान दूसरे ज्ञान को नहीं जान सकता, इसी प्रकार दूसरा ज्ञान प्रथम ज्ञान को नहीं जान सकता । दोनों ही जब अज्ञात हैं और आपस में ही एक दूसरे को जान सकते हैं तो पहले कौन किसे जानेगा ? - "यदि ज्ञान न होता तो ‘पदार्थ है' ऐसा व्यवहार न होता, परन्तु 'पदार्थ है ऐसा व्यवहार हो रहा है, अतएव मुझे ज्ञान हुआ है", इस प्रकार की अर्थापत्ति से ज्ञान का ज्ञान है; यह विचार भी योग्य नहीं है । अर्थापत्ति भी ज्ञापक है, अतएव जब तक वह स्वयं अज्ञात है तब तक ज्ञापक नहीं हो सकती। दूसरी अर्थापत्ति से पहलो अर्थापत्ति का ज्ञान मानने पर पूर्ववत् अनवस्था और इतरेतराश्रय दोषों की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार ज्ञान जैसे अर्थ की ओर उन्मुख होकर अर्थ को जानता है, उसी प्रकार स्व (ज्ञान) की ओर उन्मुख होकर स्व को भी जानता है । अतएव वह अर्थनिर्णायक की तरह स्वनिर्णायक भी है।
ज्ञान यदि अपने को जानता है तो ज्ञेय हो जायगा और ज्ञेय होने के कारण घट आदि के समान ज्ञान नहीं रहेगा । यह कहना युक्तिसंगत नहीं । ज्ञाता (अहंकर्ता) का जब ज्ञान होता है, तो वह भी ज्ञेय होता है । परन्तु ज्ञाता के रूप में ही वह ज्ञेय होता है, अतएव ज्ञेय होने पर भी उसके ज्ञातृत्व में कोई क्षति नहीं होती। इसी प्रकार ज्ञान जब अपने आपको जानता है तो वह अपना ज्ञेय बन जाता है, किन्तु ज्ञान रूप में ही वह ज्ञेय होता है, अतएव उसके ज्ञानत्व में कोई क्षति नहीं होती। ज्ञान ज्ञेय हो जाय,यह कोई दोष नहीं है,क्योंकि वह अर्थ. की अपेक्षा ज्ञान है और अपनी अपेक्षा से ज्ञेय होता है । एक ही पुरुष अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र और पुत्र को अपेक्षा से पिता होता है-उसके पिता और पुत्र होने में कोई विरोध नहीं है,इसी प्रकार ज्ञान पदार्थ की अपेक्षा से ज्ञान और अपनी अपेक्षा से ज्ञेय होता है, इसमें भी कोई विरोध नहीं है।
जैसे तलवार अपने-आपको नहीं काट सकती, उसी प्रकार ज्ञान अपने को नहीं जान सकता, क्योंकि अपने-आपमें क्रिया का विरोध है ऐसा कहना उचित नहीं है। जो बात अनुभव से सिद्धहै ,