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________________ प्रमाणमीमांसा १३५ प्रयुक्त झटिति तद्दोषतत्त्वाप्रतिभासे हेतुप्रतिबिम्बनप्रायाणि प्रत्यवस्थानान्यनन्तत्वा' परिसङ्ख्यातुं न शक्यन्ते, तथाप्यक्षपादर्शितदिशा साधादिप्रत्यवस्थानभेदेन साधयंवैधोत्कर्षापकर्षवर्ध्यावर्ण्यविकल्पसाध्यप्राप्त्यप्राप्तिप्रसङ्गप्रतिदृष्टान्तानुत्पत्तिसंश. यप्रकरणाहेत्वर्थापत्यविशेषोपपत्त्युपलब्ध्नुपलब्धिनित्यानित्यकार्यसमरूपतया चतुर्विशतिरुपदय॑न्ते । ६४-तत्र साधर्म्यण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमा जातिः । यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवदिति प्रयोगे कृते साधर्म्यप्रयोगेणैव प्रत्यवस्थानम्--नित्यः शब्दो निरवयवत्वादाकाशवत् । न चास्ति विशेषहेतुर्घटसाधर्म्यात् कृतकत्वादनित्यः शब्दो न पुनराकाशसाधानिरवयवत्वान्नित्य इति १। वैधhण प्रत्यवस्थानं वैधर्म्यसमा जातिः। यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वादित्यत्रव प्रयोगे स एव प्रतिहेतुर्वैधयण प्रयुज्यते-नित्यः शब्दो निरवयवत्वात् , अनित्यं हि सावयवं दृष्टं घटादीति। न चास्ति विशेषहेतुर्घटसाधात्कृतकत्वादनित्यः शब्दो न पुनस्तद्वैधानिरवयवत्वान्नित्य इति २ | उत्कर्षापकर्षाभ्यां प्रत्यवस्थानमुत्कर्षापकर्षसमे जाती। तत्रैव प्रयोगे दृष्टान्तकरके वादो के हेतु का निरसन करता है । निरसन के ये प्रकार अगणित हैं। उनकी कोई नियत संख्या नहीं हो सकती। फिर भी नैयायिक शास्त्र में प्रदर्शित दिशा के अनुसार जात्युत्तर या जातियाँ चौवीस हैं । वे यहाँ भी दिखलाई जाती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं (१) साधर्म्यसमा (२) वैधर्म्यसमा (३) उत्कर्षसमा (४)अपकर्षसमा (५) वर्ण्यसमा (६) अवर्ण्यसमा (७) विकल्पसमा (८)साध्यसमा(९) प्राप्तिसमा (१०) अप्राप्तिसमा (११)प्रसंगसमा (१२) प्रतिदृष्टान्तसमा (१३) अनुत्पत्तिसमा (१४) संशयसमा (१५) प्रकरणसमा (१६) अहेतुसमा (१७) अर्थापत्तिसमा (१८) अविशेषसमा ( १९ ) उपपत्तिसमा ( २० ) उपलब्धिसमा(२१) अनुपलब्धिसमा(२२) नित्यसमा (२३) अनित्यसमा और (२४) कार्यसमा । ६४(१) साधर्म्यसमा-साधर्म्य दिखलाकर वादी के साधन का निरास करना साधर्म्यसमा जाति है । जैसे-शब्द अनित्य है, क्योंकि कृतक है, घट के समान । वादी के द्वारा ऐसा प्रयोग करने पर साधर्म्यप्रयोग के द्वारा ही उसका निरास करना, यथा-शब्द नित्य है क्योंकि निरवयव है, जैसे-आकाश । कोई कारण नहीं कि घट के समान कृतक होने से शब्द अनित्य हो तो आकाश के समान निरवयव होने से नित्य न हो! ' - (२) वैधर्म्यसमा-विसदृशता दिखा कर निरास करना वैधर्म्यसमा जाति है । यथा-शब्द अनित्य है, क्योंकि कृतक है, जैसे-घट, ऐसा प्रयोग करने पर वही विरोधी हेतु प्रयुक्त करनाशब्द नित्य है, क्योंकि निरवयव है । जो अनित्य होता है वह सावयव देखा जाता है,जैसे-घटादि, कोई विशेष कारण नहीं कि घट के समान कृतक होने से यदि शब्द अनित्य है तो घट से विपरीत निरवयव होने से नित्य न हो। (३) उत्कर्षसमा-उत्कर्ष (अधिकता) दिखला कर हेतु का निरास करना उन्कर्षसमाजाति है । पहले वाले प्रयोग में ही दृष्टान्त (सपक्ष) के किसी धर्म को पक्ष में आपादन करने
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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