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प्रमाणमीमांसा भवन्ति । यदोभयवाद्यसिद्धत्वेन विवक्ष्यन्ते तदोभयासिद्धा भवन्ति ॥१९॥ ४४-विरुद्धस्य लक्षणमाह
विपरीतनियमोऽन्यथैवोपपद्यमानो विरुद्धः २०॥ ४५-'विपरीतः' यथोक्ताद्विपर्यस्तो 'नियमः' अविनाभावो यस्य स तथा, तस्यवोपदर्शनम् 'अन्यथैवोपपद्यमानः' इति । यथा नित्यः शब्दः कार्यत्वात्, परार्थाश्चक्षुरादयः संघातत्वाच्छयनाशनाद्यङ्गवदित्यत्रासंहतपारायें साध्ये चक्षुरादीनां संहतत्वं विरुद्धम् । बुद्धिमत्पूर्वकं क्षित्यादि कार्यत्वादित्यत्राशरीरसर्वज्ञकर्तृपूर्वकत्वे साध्ये कार्यत्वं विरुद्धसाधनाद्विरुद्धम् ।
४६-अनेन येऽन्यैरन्ये विरुद्धा उदाहृतास्तेऽपि सङ्ग्रहीताः । यथा सति सपने चत्वारो भेदाः । पक्षविपक्षव्यापको यथा नित्यः शब्दः कार्यत्वात् । पक्षव्यापको विपक्षकदेशवृत्तिर्यथा निन्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वात् । पक्षकवह अन्यतरासिद्ध में समाविष्ट हो जाता है और जब यह दोनों-वादी और प्रतिवादी को सिद्ध नहीं होते तो उभयासिद्ध हो जाते हैं । इस प्रकार इन सभी का पूर्वोक्त असिद्ध हेत्वाभासों में अन्तर्भाव हो जाता है ॥१९॥
४४-विरुद्ध हेत्वाभास का लक्षण-सूत्रार्थ-जिसका अविनाभाव साध्य से विपरीत के साथ हो अतएव जो साध्य के विना ही होता हो वह विरुद्ध हेत्वाभास है ॥२०॥
.४५--पहले कहा जा चुका है कि साध्य के विना न होना हेतु का लक्षण है. किन्तु जो हेतु इससे विपरीत हो अर्थात् साध्य के विना ही होता हो वह विरुद्ध हेत्वाभास कहलाता है । जैसेशब्द नित्य है क्योंकि वह कार्य है ।(कार्य हेतु नित्यत्व साध्य से विपरीत अनित्यत्व के होने पर हो सकता है)।
चक्षु आदि इन्द्रियाँ परार्थ (आत्मार्थ) हैं, क्योंकि संघातरूप हैं । जैसे शयन अशन आदि के अंग । यहाँ असंहतपरार्थता सिद्ध करने के लिए चक्षु आदि की संहतता विरुद्ध है।
पृथ्वी आदि बुद्धिमत्कर्तृक हैं, क्योंकि कार्य हैं । यहाँ अशरीर सर्वज्ञकर्तृकता सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त 'कार्य' हेतुविरुद्ध है । क्योंकि वह सशरीर और असर्वज्ञ कर्ता को सिद्ध करता है।
४६- अन्य लोगों ने विरुद्ध हेत्वाभास के जो अन्य उदाहरण दिए हैं, उन सब का संग्रह इसी लक्षण से हो जाता है । यथा-सपक्ष की विद्यमानता में चार भेद होते हैं।
(१)पक्ष-विपक्षव्यापक-शब्द नित्य है, क्योंकि कार्य है । ( यहाँ कार्य हेतु पक्ष 'शब्द, में और विपक्ष 'घटादि, में व्याप्त है।) (२) पक्षव्यापक और विपक्षकदेशवृत्ति-शब्द नित्य है क्योंक वह सामान्यवान् होता हुआ हमारी बाह्य इन्द्रिय श्रोत्र द्वारा १ग्राह्य है। (यहाँ हेतु पक्ष में व्याप्त
१-नैयायिक मत के अनुसार जो वस्तु जिस इन्द्रिय से ग्राह्य होती है , उसमें रहने वाली जाति (सामान्य) भी उसी इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होती है।