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प्रमाणमीमांसा
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स्वरूपासिद्ध इत्यर्थः । यथा अनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वादिति । अपक्षधर्मत्वादयमसिद्ध इति न मन्तव्यमित्याह-नान्यथानुपपन्नः' इति । अन्यथानुपपत्तिरूपहेतुलक्षणविरहादयमसिद्धो नापक्षधर्मत्वात् । नहि पक्षधर्मत्वं हेतोर्लक्षणं तदभावेऽप्यन्यथानुपपत्तिबलाखेतुत्वोपपत्तेरित्युक्तप्रायम् । भट्टोप्याह
____ "पित्रोश्च ब्राह्मणत्वेन पुत्रब्राह्मणतानुमा। .
सर्वलोकप्रसिद्धा न पक्षधर्ममपेक्षते ॥” इति । ३९-तथा 'अनिश्चितसत्त्वः सन्दिग्धसत्त्वः नान्यथानुपपन्नः' इति सत्त्वस्य सन्देहेप्यसिद्धो हेत्वाभासः सन्दिग्धासिद्ध इत्यर्थः। यथा बाष्पादिभावेन सन्दिह्यमाना धूमलताग्निसिद्धावुपदिश्यमाना, यथा चात्मनः सिद्धावपि सर्वगतत्वे साध्ये सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वम्, प्रमाणाभावादिति ॥१७॥ ४०-असिद्धप्रभेदानाह
वादिप्रतिवाद्युभयभेदाच्चैतद्भेदः ||१८॥ सिद्ध नहीं है वह स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास कहलाता है। यथा 'शब्द अनित्य है क्योंकि वह चाक्षुष है (यहाँ चाक्षुषत्व हेतु शब्द में अविद्यमान है) । किन्तु यह चाक्षुषत्व हेतु पक्ष में न रहने से असिद्ध है ऐसा नहीं मानना चाहिए, यह प्रगट करने के लिए 'नान्यथानुपपन्नः, ऐसा कहा है । अन्यथानुपपत्ति रूप हेतु का लक्षण न होने से यह असिद्ध है, पक्षधर्मता के अभाव से नहीं। क्योंकि पक्षधर्मता न होने पर भी जहाँ अन्यथानुपपत्ति होती है वहाँ हेतु गमक होता है । अतएव पक्षधर्मता हेतु का लक्षण नहीं है, यह पहले कहा जा चुका है । भट्ट ने भी कहा है
माता पिता के ब्राह्मण होने से पुत्र के ब्राह्मण होने का अनुमान सम्पूर्ण लोक में प्रसिद्ध है, किन्तु इस अनुमान के लिए पक्षधर्मता को अपेक्षा नहीं होती। तात्पर्य यह है कि माता पिता का ब्राह्मणत्व माता पिता में ही रहता है-पुत्र में नहीं, अतएव यहाँ पक्षधर्मता नहीं है, तथापि लोक में यह अनुमान समीचीन माना जाता है । अतएव यह सिद्ध होता है कि 'पक्षधर्मता' हेतु का स्वरूप नहीं है।
३९-तथा जो हेतु अनिश्चित (संदिग्ध सत्त्ववाला होता है वह भी अन्यथानुपपत्ति से रहित होने के कारण असिद्ध कहलाता है । उसे संदिग्धासिद्धहेत्वाभास कहते हैं। जैसे यह वाष्प है या धूम है ऐसा सन्देह होने पर अस्तित्व सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया धूम हेतु संदिग्धासिद्ध है । आत्मा सिद्ध है तथापि उसकी सर्वव्यापकता सिद्ध करने के लिए कोई ऐसा हेतु प्रयोग करे-'आत्मा सर्वव्यापक है क्योंकि उसके गुण सर्वत्र उपलब्ध होते हैं, यहाँ आत्मिक गुणों का सर्वत्र उपलब्ध होना संदिग्धासिद्ध है, क्योंकि उनकी उपलब्धि में कोई प्रमाण नहीं है ॥१७॥ . ४०-असिद्ध हेत्वाभास के भेद-सूत्रार्थ-वादी, प्रतिवादी और उभय के भेद से असिद्ध हेत्वाभास में भी भेद हो जाता है ॥१८॥