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प्रमाणमीमांसा ____३६-'त्रय' इति सङ्ख्यान्तरव्यवच्छेदार्थम् । तेन कालातीत-प्रकरणसमयो~वच्छेदः । तत्र कालातीतस्य पक्षदोषेष्वन्तर्भावः । "प्रत्यक्षागमबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तः कालात्ययापदिष्टः" इति हि तस्य लक्षणमिति, यथा अनुष्णस्तेजोऽवयवी कृतकत्वाद् घटवदिति । प्रकरणसमस्तु न सम्भवत्येव; नास्ति सम्भवो यथोक्तलक्षणे ऽनुमाने प्रयुक्तेऽदूषिते वाऽनुमानान्तरस्य । यत्तूदाहरणम् -अनित्यः शब्दः पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वात् इत्येकेनोक्ते द्वितीय आह-नित्यः शब्दः पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वादिति । तदतीवासाम्प्रतम् । को हि चतुरङ्गसभायां वादी प्रतिवादी वैवंविधमसम्बद्धमनुन्मत्तोऽभिदधीतेति ? ॥१६॥ ___३७-तत्रासिद्धस्य लक्षणमाहनासन्ननिश्चितसत्त्वो वाऽन्यथानुपपन्न इति सत्त्वस्यासिद्धौ
सन्देहे वाऽसिद्धः ॥१७॥ ३८-'असन्' अविद्यमानो 'नान्यथानुपपन्नः' इति सत्त्वस्यासिद्धौ ‘असिद्धः' हेत्वाभासः
३६-सूत्र में प्रयुक्त त्रय' पद उनकी न्यूनाधिक संख्या का व्यवच्छेद करने के लिए है। अर्थात् हेत्वाभास न तीन से कम हैं, न अधिक हैं, यह प्रदर्शित करने के लिए है। इस पद से नैयायिकों को मान्य कालातीत (कालात्ययापदिष्ट) और प्रकरणसम हेत्वाभासों का निषेध हो जाता है उनमें से कालातीत हेत्वाभास का पक्ष के दोषोंमें ही समावेश हो जाता है, क्योंकि नैयायिकों ने प्रत्यक्ष और आगम से बाधित साध्यप्रयोग के अनन्तर प्रयुक्त हेतु को कालात्ययापदिष्ट कहा है । जैसे तेज- अवयवी अनुष्ण है.१ क्योंकि वह कृतक है, जैसे घट ।
जिस हेतु का समान बल वाला विरोधी हेतु हो वह प्रकरण सम हेत्वाभास कहा गया है, किन्तु प्रकरणसम हेत्वाभास संभव ही नहीं है । पूर्वोक्त लक्षण वाले अनुमान का प्रयोग किया जाय और उसको दूषित न किया जाय, फिर भी उसका विरोध दूसरा अनुमान उपस्थित हो, यह असंभव है। प्रकरणसम हेत्वाभास का यह उदाहरण दिया जाता है-शब्द अनित्य है, क्योंकि वह पक्ष और सपक्ष में से अन्यतर (कोई एक ) है। इस प्रकार वादी के कहने पर प्रतिवादी कहता है।- 'शब्द नित्य है क्योंकि वह पक्ष और सपक्ष में से अन्यतर है। किन्तु यह उदाहरण बहत ही अयुक्त है। चतुरंग वादी, प्रतिवादी ,सभ्य और सभापति से युक्त-सभा में कौन वादी या प्रतिवादी इस प्रकार पागल की भाँति असम्बद्ध भाषण करेगा? ॥१६॥
३७- असिद्ध हेत्वाभास-सूत्रार्थ-असत् और अनिश्चितसत्त्व हेतु अन्यथानुपपन्न नहीं होता, अतएव सत्ता के असिद्ध अथवा सन्देह में वह असिद्ध कहलाता है ॥१७॥ ___३८-असत् अर्थात् अविद्यमान हेतु में अन्यथानुपपत्ति नहीं होती, अतएव जिसकी सत्ता हो
१-जैनमान्यता के अनुसार यहीं पक्ष में प्रत्यक्ष से बाधा है और यह आवश्यक नहीं कि पक्ष में बाधा होने से हेतु भी बाधित होना ही चाहिए ।