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प्रमाणीमांसा
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प्रमाणमात्र विचारस्तु प्रतिपक्ष निराकरणपर्यवसायी वाक्कलहमात्रं स्यात् । तद्विवक्षायां तु' अथ प्रमाणपरीक्षा" [ प्रमाणवरी० पृष्ठ० १] इत्येव क्रियेत । तत् स्थितमेतत्-प्रमाणपरिशोधित प्रमेयमार्ग सोपायं सप्रतिपक्षं मोक्षं विवक्षितुं मीमांसाग्रहणमकार्याचार्येणेति । १ । ७ तत्र प्रमाणसामान्यलक्षणमाह
सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् ॥ २ ॥
८' प्रमाणम्' इति लक्ष्य निर्देशः, शेषं लक्षणम्, प्रसिद्धानुवादेन ह्यप्रसिद्धस्य विधानं लक्षणार्थः । यत्तदविवादेन प्रमाणमिति धम्मि प्रसिद्धं तस्य सम्यगर्थनिर्णयात्मकत्वं धर्मो विधीयते । अंत्र प्रमाणत्वादिति हेतु:, न च धर्मिणो हेतुत्वमनुपपन्नम् ; भवति हि विशेषे धम्मिणि तत्सामान्यं हेतुः, यथा अयं धूमः साग्निः, धूमत्वात् पूर्वोपलब्धधूमवत् । न च दृष्टान्तमन्तरेण न गमकत्वम्; अन्तर्व्याप्त्यैव साध्यसिद्धेः, 'सात्मकं जीवच्छरीरम्, प्राणादिमत्त्वात्' इत्यादिवदिति दर्शयिष्यते ।
सिर्फ प्रमाण का विचार करना प्रतिपक्ष का निराकरण करने में ही पर्यवसित होता है। और वह एक प्रकार से वाक्कलह मात्र हो है । यदि सिर्फ प्रमाण का ही निरूपण करना अभीष्ट होता तो सूत्र की रचना यों की होती- 'अथ प्रमाण परीक्षा ।' अतएव यह निश्चित है कि प्रमाण
और नय के द्वारा जिसका मार्ग अनेकान्तमयस्वरूप परिशोधित किया गया है ऐसे मोक्ष का भी उसके उपायों और विरोधी तत्त्वों के साथ कथन करने के अभिप्राय से ही 'मीमांसा' शब्द का प्रयोग किया है ।। १॥
प्रमाणसामान्य का स्वरूप
- अर्थ - पदार्थ का सम्यक् निश्चय प्रमाण कहलाता है ।। २ ।।
८- सूत्र में 'प्रमाण' पद लक्ष्य है और 'सम्यगर्थनिर्णयः' यह प्रमाण का लक्षण है । प्रसिद्ध वस्तु का अनुवाद करके अप्रसिद्ध का विधान करना लक्षण का प्रतिपादन करना कहलाता है । यहाँ सामान्यरूप से 'प्रमाण' सभी को प्रसिद्ध है । अर्थात् प्रमाण का लक्षण कोई कुछ भी माने तथापि प्रमाण सामान्य तो प्रत्येक वादी को मान्य हो है । ( अतएव इस सूत्र में 'प्रमाण' शब्द का उल्लेख प्रसिद्ध का अनुवाद है ) उसमें सम्यगर्थनिर्णायकत्व' धर्म का जो प्रतिवादी को प्रसिद्ध नहीं है- विधान किया गया है । यहाँ हेतु 'प्रमाणत्व' है । अतएव अनुमान का रूप इस प्रकार होगा - प्रमाण सम्यगर्थ निर्णयात्मक है, क्योंकि वह प्रमाण है ।
कहा जा सकता है कि प्रकृत अनुमान में पक्ष को ही हेतु बनाया गया है, सो उचित नहीं है । किन्तु इसमें कोई अनौचित्य नहीं समझना चाहिए। वास्तव में यहाँ प्रमाणविशेष पक्ष है और प्रमाणसामान्य हेतु है, जैसे यह धूम अग्निसहित है, क्योंकि धूम है, जैसे पूर्वोपलब्ध धूम । जिस प्रकार यहाँ विशिष्ट ( विवादग्रस्त ) धूम पक्ष है और सामान्य धूम हेतु है, उसी प्रकार प्रकृत अनुमान में भी समझ लेना चाहिए ।
दृष्टांत के बिना हेतु गमक नहीं हो सकता, ऐसी बात भी नहीं है । अन्तर्व्याप्ति से ही साध्य की सिद्धि हो जाती है । 'जीता हुआ शरीर आत्मवान् है क्योंकि वह प्राणादि से युक्त है' इस