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प्रमाणमीमांसा
अत्र हि देशः प्रत्यक्षेण सिद्धः । एतेन-“सर्व एवानुमानानुमेयव्यवहारो बुद्ध्यारूढेन धर्ममिन्यायन न बहिः सदसत्त्वमपेक्षते" 'इतिसौगतं मतं प्रतिक्षिपति । नहीयं विकल्पबुद्धिरन्तर्बहिर्वाऽनासादितालम्बना मिणं व्यवस्थापति, तदवास्तवत्वे तदाधारसाधनयोरपि वास्तवत्वानुपपत्तेः तद्बुद्धेः पारम्पर्येणापि वस्तुव्यवस्थापकत्वायोगात् । ततो विकल्पेनान्येन वा व्यवस्थापितः पर्वतादिविषयभावं भजन्नेव धर्मितां प्रतिपद्यते । तथा च सति प्रमाणसिद्धस्य धर्मिता युक्तैव ॥१६॥ ६३. अपवादमाह
. बुद्धिसिद्धोऽपि ॥१७॥ ६४-नैकान्तेन प्रमाणसिद्ध एव धर्मी, किंतु विकल्पबुद्धिप्रसिद्धोऽपि धर्मी भवति । 'अपि' शब्देन प्रमाण-बुद्धि भ्यामुभाभ्यामपि सिद्धो धर्मी भवतीति दर्शयति । तत्र बुद्धिसिद्ध धर्मिणि साध्यधर्मः सत्त्वमसत्त्वं च प्रमाणबलेन साध्यते, यथा अस्ति सर्वज्ञः, नास्ति षष्ठं भूतमिति । "
धर्मी को प्रमाण से सिद्ध कहने से बौद्धों का यह मत खंडित किया गया है कि-सभी साध्य और साधनसंबंधी व्यवहार बुद्धिकल्पित धर्स-धर्मोन्याय से ही होता है अर्थात् कल्पित है। कल्पना से बाहर उसकी कोई सत्ता-असत्ता नहीं है। विकल्पबुद्धि बाह्य और आन्तरिक.आलम्बन के विना धर्मों की व्यवस्था नहीं करती। यदि साध्य और साधन का आधारभूत धर्मी ही वास्त
वाले साध्य और साधन भी वास्तविक नहीं हो सकते । ऐसी स्थिति में विकल्पज्ञान परम्परा से भी वस्तु का व्यवस्थापक नहीं हो सकता । अतएव यही स्वीकार करना
है कि सविकल्पक या निर्विकल्पक ज्ञान द्वारा व्यवस्थापित पर्वत आदि सविकल्पक ज्ञान के विषय होकर ही धर्मों होते हैं, अतएव प्रमाणसिद्ध वस्तु को धर्मो कहना योग्य ही है ॥१६॥
६३--धर्मोविषयक अपवाद-सूत्रार्थ-धर्मी बुद्धिसिद्ध भी होता है ॥१७॥
६४--धर्मो एकान्ततः प्रमाण से ही सिद्ध नहीं होता,किन्तु विकल्प बुद्धि से भी सिद्ध ह ता. है। सूत्र में प्रयुक्त अपि (भी)'शब्द से यह ध्वनित किया गया है कि कोई-कोई धर्मी प्रमाण और बुद्धि दोनों से भी सिद्ध होता है। इन तीन प्रकार के र्मियों में से बुद्धिसिद्ध धर्मों में सिर्फ सत्ता या असत्ता ही प्रमाण के द्वारा साध्य हो सकती हैं, इनके अतिरिक्त अन्य कोई विशेष धर्म सिद्ध नहीं किया जा सकता । जैसे सर्वज्ञ है,षष्ठ भूत नहीं है । तात्पर्य यह है कि बुद्धिसिद्ध धर्मो सत्ता या असत्ता को सिद्ध करने के लिए मान लिया जाता है,क्योंकि किसी पदार्थ की सत्ता या असत्ता उसे पक्ष बनाये विना सिद्ध नहीं हो सकती सर्वज्ञ है यह सिद्ध करने के लिए भी और 'सर्वज्ञ नहीं है' यह सिद्ध करने के लिये भी. सर्वज्ञ को पक्ष बनाये विना काम नहीं चल सकता अतएव बुद्धि सिद्ध धर्मो तो आवश्यक है, किन्तु उसमें सत्ता अथवा असत्ता ही सिद्ध की जा सकती है।