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________________ को सहकारी भेद को हेतुपना है, उसके समुदाय को ही हेतुत्व है, यदि ऐसा कहते हो तो समुदाय को ही सत्व होना चाहिये, समुदाय में प्रत्येक को नहीं ।एक स्वभाव वाले भाव के अभाव में समुदाय को भी हेतुत्व नहीं हो सकता, भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले समुदाय का प्रतिवेदन नहीं होने से।अतः अनेक स्वभाव वाले भाव को ही अनेक वस्तु का कार्यकारी मानना चाहिये।भाव का अनेकस्वभावत्व उस प्रकार के अपने कारण से, उसका भी अनेक स्वभावत्व उस प्रकार के उसके अपने कारण से होता है, यहां अनवस्था दोष नहीं है, उस परंपरा के अनादि होने के कारण |अतः सत्व को अनेकान्त से व्याप्त होने के कारण उसके विरोधी एकान्त के निराकरण के प्रति हेतुत्व ठीक ही है। 196 ।। विरुद्धसहचरं यथा-नास्य मुनेर्मिथ्याज्ञानं सग्यग्दर्शनादिति ।सम्यग्दर्शनं 'तत्साहचर्यनियमेन सम्यग्ज्ञानमुपसर्पयत्तत्प्रत्यनीकमिथ्याज्ञान प्रत्यवायमुपपादय तीत्युपपन्नं तत्र तस्य लिंगत्वं ।विरुद्धसहचरस्य कारणमत्रैव साध्ये "तत्वाधि - गमादिति, कार्य चानुकंपाऽऽस्तिक्यादिरिति ।तत्त्वाधिगमो हि सम्यग्दर्शनस्य कारणमनुकंपादि च कार्यमविनाभावनिर्णयात् सम्यग्ज्ञानसहभाविनस्तस्य भावमवबोधयन्मिथ्याज्ञानव्युदासाध्यवसायमासादयति। एवमन्यदपि विधिरूपं प्रतिषेधलिंगं प्रतिपत्तव्यम् ||97 || विरूद्धसहचर का उदाहरण-"नास्य मुनेमिथ्याज्ञानं सम्यग्दर्शनात" सम्यकदर्शन के साथ सम्यक ज्ञान के होने का नियम होने से सम्यकदर्शन सम्यक ज्ञान को बताता हुआ उसके विपरीत मिथ्या ज्ञान के अभाव को बताता है, अतः वहां सम्यग्दर्शन को हेतुत्व सिद्ध होता है!विरूद्ध सहचर का कारण इसी साध्य में "नास्य मुनेर्मिथ्या ज्ञानं तत्वाधिगमात् कार्य अनुकम्पा आस्तिक्य आदि है। तत्वाधिगम सम्यकदर्शन का कारण है और अनुकंप आस्तिक्य आदि सम्यकदर्शन के कार्य है।ये अविनाभाव के निर्णय से सम्यकज्ञान के साथ होने वाले अनुकंपादि के भाव को बताते हुए मिथ्याज्ञान के अभाव का निश्चय कराता है।इसी प्रकार अन्य भी विधिरूप प्रतिषेधलिंग जानना चाहिये। 197 ।। प्रतिषेधरूपमपि तल्लिंगमनेकधा ।तत्र स्वभावानुपलंभो यथानास्ति बोधत्मनि रूपादिमत्वमनुपलंभात् खरमस्तके विषाणवदिति। न चेदमत्र मंतव्यं, परमाण्वादेः सतोऽपि चिदनुपलंभाद् व्यभिचार इति, ततः प्रकृतानुपलंभस्य गोपालकलशधूमादेः पर्वतधूमादेरिव विलक्षणत्वेन तद्दोषोपनिपाताभावात् ।तर्हि दृश्यविषयत्वमेव ततस्तस्य वैलक्षण्यमिति दृश्यानुपलंभस्यैव हेतुत्वमिति चेत् न, अदृश्यानुपलंभस्याप्यात्मनि पिशाचरूपत्वाभावे गमकत्वात्, अन्यथा पिशाचो । - - 'सम्यग्ज्ञानं। उपनयत्। 3 अभानं। तत्वार्थोपदेशग्रहणादिभावः तत्वार्थानां श्रद्धानपूर्वकमवधारणं हि ग्रहणमढेष्टमन्यथाऽस्य ग्रहणाभासत्वात। 5 चेतसि। ६ परमाण्वाद्यनुपलंभात्। रूपादिमत्वानुपलंभस्य। 66
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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