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________________ नाहमस्मीति व्यवहारानुपपत्तेः ।न च पिशाचस्यादृश्यत्वे तदव्यतिरेकिणस्त'द्रूपत्वस्य दृश्यत्वम् । आत्मनोऽदृश्यत्वेन तदभिन्नतयाऽदृश्यत्वमपि तस्येति चेत्, नेदानीमेकांततस्तदनुपलंभस्याभावं प्रतिगमकत्वं, दृश्यादृश्यविषयतया संशयनिबंधनत्वात्। तन्न दृश्यविषयतयैव गमकत्वमनुपलंभस्याविनाभावनियमनिर्णये तदपरस्यापि तदुपपत्तेः । 198 ।। प्रतिषेधरूप लिंग भी अनेक प्रकार का है-स्वभावानुपलंभ का उदाहरण-"नास्ति बोधात्मनि रूपादिमत्वमनुपलभात् रखरमस्तके विषाणवत्"यहां यह मानना कि परमाणु आदि के रूपादिमत्व होने पर भी कहीं अनुपलंभ होने से अनुपलंभात हेतु व्याभिचारी है, ठीक नहीं है।परमाणु आदि के अनुपलंभ से रूपादिमत्व के अनुपलंभ को विलक्षण होने से, गोपालकलश के धूएं और पर्वत के धूम के विलक्षणत्व के समान ।अतः परमाणु आदि के होने पर भी कहीं अनुपलंभ होने से बोधात्मा में रूपादि मत्व के अनुपलंभ को कोई दोष नहीं है।परपक्ष कहते हैं-तब दृश्यविषयत्व ही परमाणु आदि के अनुपलंभ से बोधात्मा में रूपादि के अनुपलंभ को विलक्षणत्व है।आचार्य कहते हैं यह कहना ठीक नहीं है अदृश्यानुपलंभ को भी आत्मा में पिशाचरूपत्व के अभाव में गमकत्व होने से।अन्यथा पिशाचो नाहमस्मि यह व्यवहार नहीं हो सकता।पिशाच के अदृश्य होने पर उससे अभिन्न पिशाचत्व को भी दृश्यत्व नहीं हो सकता।आत्मा के अदृश्य होने के कारण उससे अभिन्न होने से पिशाचत्व को भी अदृश्यत्व है यदि ऐसा कहते हो तो एकान्त रूप से अनुपलंभ हेतु ही आत्मा में रूपादिमत्व के अभाव के प्रति गमक नहीं है दृश्य अदृश्य विषय के कारण संशय का कारण होने से।अतः दृश्य विषय के कारण ही अनुपलंभ हेतु गमक नहीं है, अविनाभाव नियम का निर्णय होने पर अदृश्य विषय को भी गमकत्व हो सकता है। 198 ।। कारणानुपलंभो यथा-न तत्र गृहे पाकसंभवः पावकानुपलब्धेरिति। कार्यस्यानुपलंभस्तु नाऽत्र शरीर बुद्धिर्व्यापारादिविशेषादेनुपलब्धेरिति। कार्यविकलस्यापि कारणस्य संभवान्न तवैकल्यात्तदभावप्रतिपत्तिरिति चेत्, कथमिदानी चिन्मरणस्यावगमो यतस्तत्र दाहादिकमाचरेत्, प्रकारांतरेण तत्प्रतिपत्तेरभावात्। ततः सत्यविनाभावनिर्णये कार्यवैकल्यादुपपन्नैव कारणस्या भावप्रतिपत्तिः । न तत्र शिंशपा वृक्षानुपलब्धेरिति व्यापकानुपलब्धिः । अस्याश्च तं प्रति प्रयोगो यस्य च्चिद्वक्षविकलेऽपि तत्सदृशाकारदर्शनेन शिंशपाबुद्धिः कथं पुनः शिंशपाव्यापकत्वं वृक्षस्य?लताशिंशपाया अपि लताचूतवत्संभावनादिति चेत्, कथमेवं कारणत्वमपि धूमादौ वह्ने ?अवह्निकस्यापि तस्य गोपालकलशादौ दर्शनात्। अन्य एव स धूमादिर्वह्निहेतुकात्तत इति चेत् न, वृक्षव्याप्तायास्ततो लताशिंशपाया अपि सभंवेऽन्यत्वाविशेषात् ।नास्त्यस्य 'तत्वज्ञानं 1 पिशाचत्वमिति यावत्। 2 अन्यः कश्चिद्वक्ति। ' प्राणिनि। मृते। ' व्यापारादिविशेषनुपलब्धिं विहायाऽन्येन। लताशिंशपा नास्त्येव यदिसंभवेऽपि ।
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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