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________________ - तच्च द्विविधमनुमानमागमश्चेति ।अनुमानमपि द्विविधं, गौणमुख विकल्पात्। तत्र गौणमनुमानं त्रिविधं, स्मरणं प्रत्यभिज्ञा तर्कश्चेति तिस चानुमानत्वं यथापूर्वमुत्तरोत्तरहेतुतयाऽनु'माननिबंधनत्वात् ।तत्र किमिदं स्मरण नाम? तदित्यतीतावभासी प्रत्यय इति चेत्, न तर्हि तस्य प्रत्यक्षपूर्वकत्व तदव गृहीतविषयत्वे सत्येव तदुत्पत्तेः ।नचातीतस्य तदवगृहीतत्वमिति चेत्सत्यमत एव तस्यापूर्वार्थत्वोपपादनात् ।तत्पूर्वकत्वं तु तस्य नीलधवलादिना तद्विषयस्यैव तेनापि ग्रहणात्। एवमपि कथं तस्य प्रामाण्यं?अविसंवादनस्य विषयप्राप्तिलक्षणस्य तत्राभावात्, सोऽपि प्राप्तिकाले तस्यासंनिपातादिति चेत प्रत्यक्षस्यापि कथं?तद्विषयस्यापि तत्काले संनिपाताभावात् ।भावे स्मरणविषयस्यापि स्यात्। निक्षेपादेस्तद्विषयस्यापि प्राप्तिप्रतीतेः। ततो युक्तमविसंवादात्तस्य प्रामाण्यम् ।।67 ।। वह परोक्ष प्रमाण दो प्रकार का है-अनुमान और आगम ।अनुमान भी दो प्रकार का है-गौण और मुख्य के भेद से।गौण अनुमान भी तीन प्रकार का है, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान और तर्क ।गौण अनुमान को पूर्वपूर्व को उत्तरोत्तर का हेतु होने के कारण अनुमान का कारण होने से अनुमानत्व है।सौगत पूछते हैं-स्मरण क्या है? वह' इस प्रकार अतीत को प्रकाशित करने वाला ज्ञान है, यदि यह कहते हो तो वह प्रत्यक्ष पूर्वक नहीं हो सकता, प्रत्यक्ष के द्वारा ग्रहीत विषय में ही स्मरण की उत्पत्ति होने से ।अतीत को प्रत्यक्ष के द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता ।यदि यह कहते हो तो ठीक ही है, इसलिये तो उसे अपूर्वार्थ को जाननेवाला कहा गया है।स्मरण को प्रत्यक्षपूर्वकत्व इसलिए है कि नीलधवलादि के द्वारा प्रत्यक्ष के विषय को ही स्मरण भी ग्रहण करता है।नीलधवलादि स्वरूप के होने पर भी उसको (स्मरण को) प्रमाणता कैसे है?विषय की प्राप्ति स्वरूप अविसंवादन का वहां अभाव होने से प्राप्ति के समय विषय के नहीं रहने से अविसंवादन रूप प्राप्ति लक्षण का है आचार्य कहते है कि यदि ऐसा कहते हो तो प्रत्यक्ष को भी कैसे प्रमाणता है? उसके विषय को भी (तुम्हारे मतानुसार) प्रत्यक्ष के समय नहीं होने से होने पर स्मरण के विषय को भी हो जायगा ।उसके विषय निक्षेपादि की प्राप्ति की प्रतीति होने से अतः अविसंवाद के कारण स्मरण की प्रमाणता ठीक ही है। 167 ।। तथा प्रत्यभिज्ञानस्य, तस्यापि पूर्वापरप्रत्ययाप्रतीता भेदसा दृश्यादि विषयत्वेनापूर्वार्थत्वादविसंवादाच्च। प्रत्यभिज्ञानमेव नास्ति, सो'ऽयमित्ययमिव 'मुख्यानुमाननिबंधनत्वात्। 'तेषु स्मरणादिषु। ' सौगतः पृच्छति। • सौगतो वदति। 'ज्ञातविषयत्वे। प्रत्यक्षानवगृहीतविषयत्वादेव। 'नीलधवलादिस्वरूपेणाऽपि। "एकत्वप्रत्यभिज्ञानस्य। ' सादृश्यप्रत्यभिज्ञानस्य। १० बौद्धो वदति। 46
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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