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________________ स इत्यादौ स इत्ययमित्यनयोः स्मरणप्रत्यक्षाकारतयाभिन्नप्रतिभासत्वेन परस्परतोऽर्थांतरत्वादन्यस्य च तदाकारस्याप्रतिवेदनात् कथं . तत्र प्रामाण्यपरिचिंतनम्, इति चेन्न तर्हि स इतिस्मरणमपि, सकारानुविद्धादकारानुविद्धस्य संवेदनस्यान्यत्वात्। अन्यथा तदुभयानुविद्धतया प्रतिभासभेदस्याभावप्रसंगादक्षणिकत्वा पत्तेश्च। एवमयमित्यत्राऽपि प्रतिपत्तव्यं । तथा च कुतो वस्तुप्रतिपत्तिरयमिति प्रत्यक्षस्याव्यवस्थितौ तत्पूर्वकत्वेनानुमानस्याप्यसंभवात्। अथाऽयमित्यकारादिवर्ण भेदेऽपि तदनुविद्धमेकमेव संवेदनं तथैव तस्य निर्बाधमनुभवात्, तर्हि सिद्धः स एवाऽयमित्यादिरपि प्रत्यय एक एव तथा तस्यापि निर्बाधावबोधगोचरत्वात्। अन्यथा समारोपस्यापि तद्रूपस्याभावान्न तदव्यवच्छेदार्थमनुमानमात्मदर्शनस्य तल्लक्षणस्याभावान्न तन्निबंधनः संसारोऽपीति न तत्प्रहाणाय मुमुक्षूणां चेष्टितमुपपद्यते ।।68|| प्रत्यभिज्ञान को भी प्रमाणता है, उसको भी पूर्व अपर प्रत्यय से अप्रतीत एकत्व , सादृश्य आदि को विषय करने से अपूर्व अर्थ वाला तथा अविसंवादी होने से।बौद्ध कहते हैं-प्रत्यभिज्ञान ही नहीं है, वह यह है, इसके समान वह है इत्यादि में वह तथा यह इन दोनों में स्मरण तथा प्रत्यक्ष रूप से भिन्न प्रतिभास होने से परस्पर एक दूसरे से भिन्न होने के कारण तदाकार का प्रतिवेदन नहीं होने से उसमें प्रमाणता की कल्पना कैसे की जा सकती है।आचार्य कहते हैं-यह कहना ठीक नहीं है।तब "स" यह स्मरण भी नहीं होगा सकार से युक्त ज्ञान से अकार से युक्त ज्ञान के भिन्न होने से कमोच्चारित अनेक वर्णों से युक्त होने के कारण भिन्न प्रतिभासमान ज्ञान को एक मानने पर उस एक के अनेकाक्षर व्यापित्व होने से अक्षणिक का प्रसंग आयेगा ।इसी प्रकार 'अयम्' इस प्रत्यक्ष में भी जानना चाहिये।फिर वस्तु की प्रतिपत्ति कैसे होगी?'अयम्' इस प्रत्यक्ष के अव्यवस्थित होने पर प्रत्यक्षपूर्वक होने के कारण अनुमान भी नहीं हो सकेगा ।यदि 'अयम्'यहां अकारादि वर्ण भेद होने पर भी उससे युक्त एक ही संवेदन होता है, उसी प्रकार उसका निर्बाध अनुभव होने से तब ‘स एवायम्' इत्यादि ज्ञान भी सिद्ध हो जाता है एक ही वस्तु में उसका निर्बाध ज्ञान होने से। 168 । भवतु स एवायमिति ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानमयमिव स इत्यस्माद्विसदृशः स इति तु ज्ञानं न प्रत्यभिज्ञानं तस्योपमानत्वादिति चेत्, तर्हि तदस्मादुन्नतमवनतं स्थूलमल्पं हस्वं दीर्घमित्यादिज्ञानानामुपमानत्वस्याभावात् कथं न प्रमाणांतरत्व? 'प्रतिपन्नस्यैवापेक्षोपनीतेनोन्नतत्वादिना परिवृत्त्य परिज्ञानेन प्रत्यभिज्ञानत्वस्यैव तत्रोपपत्तिरिति चेत्, सिद्धमुपमानस्यापि प्रत्यभिज्ञानत्वं, तेनाऽपि तथा तस्य तादृशेनैव सादृश्यादिना परिज्ञानात्।।69 ।। 1 सोऽयमित्याकारवेदनस्य। 'कमोच्चारितानेकवर्णानुविद्धतया भिन्नप्रतिभासात्मनो ज्ञानस्यैकत्वाभ्युपगमे तस्यैकस्यानेकाक्षरख्यापित्वस्यावश्यंभावादक्षणिकत्वापत्तिरित्यर्थः । प्रत्यक्षेऽपि। * परिज्ञातवस्तुनः ।
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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