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________________ अपने को सुधार लेता है, वह अच्छा मानव बन जाता है। उन स्थपति ने भी गलती की थी। उसे समझकर अपने को उन्होंने सुधार लिया । अच्छा, छोड़िए यह बात। आपका यह निर्माण लोकोत्तर बनकर स्थायी रहेगा।' "मगर यह अनुकरण है। उनकी कल्पना लो मौलिक है।" "हम ऐसा समझते हैं । मौलिक कल्पना के क्या मायने हैं ?" हमारा जीवन एक परम्परा में गलती दुआ गया है। इसी से ही रोति-नीतियाँ पित होती आयो हैं। हमारा साहित्य और कलाएँ विकसित हुए हैं। परन्तु यहाँ किसी की भी कल्पना को मौलिक नहीं कह सकते। यदि कभी किसी चीज को मौलिक कहने का साहस करते हैं तो वह भी उस पुराने के आधार पर हो। यह स्फुरण पुराने से भिन्न होने पर नवीन के नाम से अभिहित होता है। उस नवीन में भी प्राचीन की छाप होती है। हमारे देश के वास्तुशिल्प की भी यही स्थिति है। समय-समय पर वह बदलता आया है। चोल-शिल्प एक प्रकार का है तो चालुक्य शिल्प उससे कुछ भिन्न है। ऐसे ही हमारे यहाँ अब एक नया रूप उसे मिला है। मन्दिर की दीवारें चौकोर होने के बदले नक्षत्राकार में बनी हैं। चौकोर, गोल, नक्षत्राकार, पंचकोण, अष्टकोण, षट्कोण आदि यह सब कल्पना नवीन नहीं। परन्तु उनको वास्तुशिल्प में लाने का तरीका नवीन है। आपकी कृत्ति उनका मिश्रित रूप है। मन्दिर दो हैं, फिर भी वह एक-दूसरे से अभिन्न लगते हैं। इनकी वास्तुरचना ही इस तरह की है। इसलिए नवीन कहने की दृष्टि से देखने पर, आपकी कृति नवीन ही है।" "सन्निधान के साथ चर्चा कर सकने की योग्यता मुझमें कहाँ? कठिन स्वभाव वाले आचार्य जकणजी को भी साधु बना देनेवाली सन्निधान के समक्ष भला मैं क्या चीज हूँ?" "वैसे तो आप भी पहले इस तरह छूटनेवाले थे न? अपनी इच्छा के अनुसार काम होने पर हमें यह अहंकार होने लगता है कि हमसे ही यह सारा काम हुआ है। यह काम यदि कहीं कुछ बिगड़ा तो हमारा मन दूसरों पर दोष का आरोपण करने लग जाता है। इसलिए मन किसी भी तरह से पकड़ में नहीं आता। जिनका मन वश में होता है उन्हीं को हम स्थितप्रज्ञ कहते हैं।" "रिपड्वर्ग के वशीभूत और उनसे हार खाने वाले हम जैसों के लिए स्थितप्रज्ञ की यह अवस्था प्राप्त करना सम्भव नहीं होता। आचार्य जकण ने अपने क्रीडापर के मन्दिर का निर्माण सम्पूर्ण होने तक अन्यत्र कहीं काम न करने का संकल्प किया था। उनके उस मन्दिर का कार्य पूरा हो गया हो तो उन्हें एक बार यहाँ बुलवा लिया जाए। मुझे बहुत प्रसन्नता होगी।" "उसके पूरा होने पर उसकी प्रतिष्ठा के समारम्भ के लिए हमें बुलाने की बात कही गयी थी। अभी कोई बुलावा नहीं आया है, इसलिए लगता है, शायद अभी काम 321 :: पमहादेवो शान्तला : भाग चार
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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