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वह कितना प्रबल है, यह देखना मुख्य है। फिर गुरु को सदा सहायक होना चाहिए। इन दोनों के इस स्थिति में होने के साथ, उस दिन रविवार है और हस्त नक्षत्र है। अतः अमृतसिद्धि योग है।"
"ठीक। वहीं करेंगे। अभी तुरन्त हमले की पूरी तैयारी करें। हमला एक तरफ से हो या कई तरफ से, इस बात का विचार भी करें।" विट्टिदेव ने कहा।
"दो तरफ से हमला हो। पूर्व और उत्तर के द्वार पर हमला करके नगर में घुसेंगे। दक्षिण और पश्चिम के द्वारों पर प्रबल तोमरधारी धुड़सवार सेना पहरा देती रहे जिससे शत्रु भाग न जाएँ।" डाकरस दण्डनाथ ने कहा।
वही निर्णय हुआ। सैन्य की व्यवस्था हुई। व्यूह-रचना का सारा काम डाकरस दण्डनाथ पर ही छोड़ दिया गया। इस बार के हमले के वह महासनापति बनाये गये। उन्होंने सावन सुदी पंचमी, इतवार, हस्त नक्षत्र के दिन हमले की भारी तैयारी कर दी।
उधर राजधानी में पट्टमहादेवी इस चिन्ता में व्या रहीं कि चट्टला व चारिमय्या को मायण अभी तक क्यों नहीं वापस लिवा लाया। एक पखवाड़े पहले वह गया था। युद्ध शिविर से भी कोई खबर नहीं आयी थी। मगर जो सामग्री युद्धक्षेत्र में भेजी जाती थी उसमें कोई हेर-फेर नहीं हुआ था। रोज-ब-रोज के काम यथावत् चलते रहे । पढ़ाई, मन्दिर-निर्माण के निरीक्षण का कार्य स्वयं पट्टमहादेवी द्वारा संचालित शिल्प-विद्यालय, महिला-शिक्षण-शाला, नृत्य-शिक्षणशाला आदि के कार्यों का निरीक्षण यथावत् चल रहा था। एक दिन मन्दिर के स्थपति ओडेयगिरि के हरीश के साथ शिल्प के सम्बन्ध में एक विस्तृत चर्चा में पट्टमहादेवीजी लगी रहीं । उस समय अचानक स्थपति जकणाचार्य के बारे में बात छिड़ी। स्वयं हरीश ने बात छेड़ी। कहा, "मैंने बहुत बड़ी गलती की। उनके साथ मुझे काम करना चाहिए था। जवानी के जोश ने मुझे उस समय विमुख कर दिया। अब खुले दिल से कहने का साहस कर सकता हूँ। उस समय जब मैंने उन्हें देखा तो असहिष्णुता का भाव पैदा हो गया था। उनका रूप, वह लिबास आदि देखकर एक तरह की अरुचि पैदा हो गयी थी। ऐसे व्यक्ति को मान्यता देने वाली सन्निधान
और पट्टमहादेवीजी के प्रति भी मेरे मन से सद्भावना दूर हो गयी थी। जिस समय मेरे रेखाचित्र को स्वीकार किया था, तब उन्हें जितना पसन्द आया था वह सारा भाव नष्ट होकर, उतना ही अप्रिय भाव मेरे मन में उत्पन्न हो गया था। मैंने एक घोर अपराध किया था।"
"मनुष्य से तो कभी गलती हो ही जाती है। जो अपनी गलती को समझकर
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 319