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"मुझे पट्टमहादेवी से मिलना है । जाकर पता लगा आओ कि अभी समय है या नहीं।" मुद्दला गयी और जल्दी ही लौट आयी।
"क्या बताया?" लक्ष्मीदेवी ने पूछा। "वे खुद ही यहाँ आ रही हैं।" उसने कहा।
उसका कहना अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि इतने में बाहर से घण्टी की आवाज सुनाई पड़ी। साथ ही शान्तलदेवी अन्दर आ पहुंची।
लक्ष्मीदेवी उठनेवाली थी कि शान्तलदेवी बोली, "नहीं, उठो मत । बैठी रहो। माँ बननेवाली को ज्यादा तकलीफ नहीं उठानी चाहिए, इसीलिए मैं खुद चली आयी। क्या बात है, कहो।" कहकर मुद्दला से कहा, "तुम बाहर ही रहो। जब तक मैं यहाँ हूँ, तब तक किसी को यहाँ प्रवेश न करने दो।"
मुद्दला बाहर चली गयी। "क्या बात है?'' "मुझे कहते संकोच हो रहा है। पता नहीं आप क्या कहेंगी।" ''तुम ही शंका भी करी और भिणय भी कर लो तो क्या किया जाए?" "सन्निधान जब यहाँ न हों तब..."
"सन्निधान रहते ही कब हैं लक्ष्मी? मेरे विवाह के बीस वर्ष होने को आये, इस अवधि का उनका तीन चौथाई हिस्सा युद्धक्षेत्र ही में बीत गया।"
"परन्तु आप युद्धक्षेत्र में साश्म तो जाया करती थीं।" "कोई...दो बार।" "परन्तु मुझे कौन ले जाएगा?"
"वहाँ कोई ऐसा काम नहीं जो तुम कर सकती हो, इसलिए नहीं ले जाते । वहाँ उन कट-मरनेवालों के दुःख-दर्द का भयंकर दृश्य नहीं देखा जा सकता। खासकर पुजा-पाठ, मठ-मन्दिरों के वातावरण में तुम पली हो । वह दृश्य तुम सह न सकोगी। अच्छा, यह विषय क्यों?"
''नहीं, सन्निधान की अनुपस्थिति में अपनी इच्छा-आकांक्षाएँ किसके सामने व्यक्त करूँ? अब आप ही हैं न मेरे लिए सब कुछ?"
"मैं भी तुम्हारी तरह सन्निधान की रानियों में से एक हैं। इतना ही।" ।'ऐसा न कहें। आप पट्टपहावेवो हैं।" "छोड़ो वह सब । अब बताओ, वात क्या है?" "पता नहीं क्यों, मेरे मन में एक तीव्र इच्छा हो रही हैं।"
"इस समय ऐसी इच्छाओं का होना स्वाभाविक है लक्ष्मी ! क्या मैं नहीं जानती? कहने में संकोच क्यों?"
"कुछ नहीं, आचार्यजी के दर्शन करने को बलवती इच्छा हो रही है।"
204 :: पट्टपहादेवी शान्तला : भाग चार