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"हो सकता है, पिताजी । इधर कुछ समय से पट्टमहादेवी को बातचीत में पहले जैसा आत्मीयता का भाव नहीं दिखता। व्यावहारिक दृष्टि से जितना आवश्यक है उतना ही बोलती हैं, किसी तरह का असन्तोष नहीं दिखता। इसलिए अब हमें क्या करना होगा ?' कुछ आतंकित-सी लक्ष्मीदेवी ने पूछा।
__ "मैं भी यही सोच रहा हूँ, बेटी । मेरे लिए सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि तुम्हारा गर्भस्थ शिशु बिना किसी तकलीफ के, सुख से, आराम से बढ़े। यहाँ जब तक रहेंगे तब तक बुराई मोल लेने की सम्भावना ही अधिक है, इसलिए तुम एक काम करो। पट्टमहादेवी से कहो, आचार्य श्री के दर्शन करने की अभिलाषा है। इसके लिए यदुगिरि जाने की व्यवस्था करवाएँ।'
"अगर वे मान जाएँ तो टोक । नहीं तो?" "यह वाद की बात है। पहले पूछ तो लो!" लक्ष्मीदेवी ने कहा, "टीक है।"
सिमझा वि. वा. सी. चली। वह वहाँ से निकला तो लक्ष्मीदेवी अकेली रह गयी।
अचानक उसका दिल धड़क उठा, 'पिता के कहे अनुसार मैं बोलने लग जाऊँ तो आगे चलकर मेरी क्या हालत होगी? राजमहल के होशियार व्यक्तियों के सामने मेरे पिता की बराबरी भी क्या ? पिता ने जो कहा- क्या वह सच है? जब खुद पद्मलदेवीजी इनकार कर ही हैं तो इस बात को मानें कैसे कि उन्होंने पट्टमहादेवी बनने की आकांक्षा से बल्लाल महाराज को मरवाया। इस बात को विश्वास भी कैसे करें? विश्वासन भी करूँ तब भी मेरे कोख का पुत्र उनके पुत्रों का हिस्सेदार बनेगा, यह उनको डर हो सकता है। इसके लिए शायद कुछ कारण हो सकता है। पिताजी के विचार करने की रीति में कुछ तर्क है। सन्निधान का सिंहासन उसे ही मिलना चाहिए जो समानधर्मी हो। सन्निधान श्रीवैष्णव है तो श्रीधैष्णव सन्तान को ही वह मिलना चाहिए। बड़ी रानी की सन्तान जैन धर्मानुयायी है। अपनी बेटी को भी जैन-धर्मावलम्बी से ब्याह दिया है। कुल रीति-नीति के विचार से सिंहासन के उपयुक्त मानने पर भी वह धर्म से परे हो जाता है। पिता की यह बात सही लगती है।...परन्तु क्या भरोसा कि मेरे पुत्र ही जनमेगा? पुत्र ही जनमे तब इन सब पर विचार करना होगा। परन्तु भविष्य की कौन जानता है? उसकी जानकारी वर्तमान स्थिति में हो भी कैसे? आगे क्या होने वाला है, इसकी कल्पना कर अभी से इस मानसिक संघर्ष में क्यों फंसा जाए? अभी भी चुप रह जाना बेहतर है। किसी ने अब तक इस बात को छेड़ा नहीं। परन्तु...परन्तु पिता के कहे अनुसार मेरी सन्तान को तकलीफ पहुंचे तो? उसकी रक्षा तो करनी ही होगी। चाहे कुछ और मिले या न मिले, सन्तान को तो बचाना ही होगा।' सोच विचार कर इस निर्णय पर पहुंची।
उसने घण्टी बजायी। उसकी चहेती दासी मुद्दला अन्दर आयी। उससे कहा,
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग। चार :: 203