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पण्डितजी प्रणाम कर निकल गये।
पुनीसमय्या और मंचि दण्डनाथ शीघ्र ही यहाँ आ गये। उनसे विचार-विनिमय हुआ। उनके साथ जानेवाली सेना को छोड़कर, शेष सेना यादवपुरी में ही तैयार बनी रहे। उसकी निगरानी बोकण करें- यह निर्णय हुआ । राजदम्पती ने विजय की कामना करते हुए दोनों को आशीर्वाद दिया। पुनीसमय्या और मंचि दण्डनाथ वहाँ से रवाना हो गये।
यह भी निर्णय हुआ कि नागिदेवण्णा यादवपुरी में ही रहें।
वेलापुरी-दोरसमुद्र में विजयोत्सव का आयोजन करने के लिए डाकरस दण्डनाथ पहले ही बेलापुरी पहुँच चुके थे। इसलिए सन्निधान और उनके परिवार में अंगरक्षक दल को छोड़ राजदम्यती, बम्मलदेवी, उदयादित्य, बिट्टियण्णा, रेविमय्या, मायण, चट्टलदेवी और जगदल सोमनाथ पण्डित इतने ही लोग थे।
अच्छे नस्ल के घोड़े हों तो सात कोस की यात्रा को दो-तीन घण्टों में तय कर सकते हैं। इस तरह का परिवार इतनी तेजी से चले यह नहीं हो सकता था। रास्ते में पूजा-पाठ, भोजन आदि के लिए जितना कम समय लगाया जा सकता था, लगाया। रेनिमय्या ने रास्ते में एक-एक कोस की दूरी पर तेज दौड़नेवाले घोड़ों को बदलबदलकर जोलने की व्यवस्था की थी। फिर भी यादवपुरी से रवाना होने के दिन पूरा दोपहर, रात और पूरा दूसरा दिन लगातार चलने से गोधूलि के समय तक सब लोग बेलापुरी पहुंच गये।
महामातृश्री एचलदेवी ने सूर्योदय होते ही समाचार सुना था कि उनके पुत्र यादवपुरी से रवाना हो चुके हैं, इससे वह खुश हो गयी थीं। परन्तु उसी दिन शाम को ही पहुंच जाने की बात सुनकर वह विश्वास न कर सकीं; क्योंकि उनका विचार था कि वे इतनी जल्दी न पहुँच सकेंगे। फिर भी उनकी इच्छा पूर्ण करने में बेटों ने तत्परता दिखायी उससे उनका अन्त:करण सन्तोष से भर गया। एचलदेवी ने पलंग पर से ही अर्हन् को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। उन्होंने अपने मन-ही-मन कहा, "अर्हन! आपने मेरी अन्तिम इच्छा पूरी कर दी। अब मैं प्रभु के पास खुशी से जाऊँगी।' उनको आँखें हर्ष के आँसुओं से भर आयी।
राजलदेवी, जो वहीं बगल में बैठी थी, महामातृश्री की बात सुन न सकी थी, परन्तु उनकी आँखों में आँसू देख घबरा गयी। उसने पूछा, "क्यों, क्या हुआ? क्या चाहिए?" उसी घबड़ाहट में किवाड़ की ओर मुड़कर जोर से आवाज दी, "कौन है?"
"हम" कहते हुए महाराज बिट्टिदेव ने धीरे से अन्दर कदम रखा। उदयादित्य और शान्तलदेवी उनके दोनों बगल में रहे मानो सहारा दे रहे हों।
राजलदेवी "सन्निधान!" कहती हुई हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई।
पट्टमहादेवी शान्तला ; भाग तीन :: "