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राजलदेवी की बात सुनकर एचलदेवी ने दरवाजे की ओर मुँह फेरकर ओढ़नी के अन्दर से हाथ बाहर निकाला।
इतने में महाराज माँ के पास पहुँचकर उनके हाथ को अपने दोनों हाथों में ले एक आसन पर बैठ गये । शान्तलदेवी पलंग पर बैठकर महामातृश्री की पीठ और सिर पर हाथ फेरने लगी। उदयादित्य और मिहिराणा दोनों भी चैत गाये मालदेवी धीरेसे राजलदेवी के बगल में जाकर खड़ी हो गयी । रेविमय्या पैताने जा बैठा। वहां के मौन को देख सोमनाथ पण्डित को कुछ सूझा नहीं, क्या करना चाहिए, वे ज्यों-केत्यों खड़े रहे।
एचलदेवी ने मौन होकर सबको शान्ति से एक बार देखा, अपने सिर पर हाथ फेरनेवाली शान्तला का हाथ अपने हाथ में लेकर बोली, "तुम सब आ गये! सब आ गये जिन्हें देखना चाहती थी। अब यहाँ मेरे लिए कोई काम नहीं है। प्रभु का बुलावा आया है। तुम्हारे बच्चों की देखरेख मुझे करनी थी। अब इस अस्वस्थता के कारण राजलदेवी की उनकी देखरेख करनी पड़ी है। हेग्गड़तीजी मेरी देखरेख करने में घुलती जा रही हैं। अगर राजलदेवी की मदद न होती तो उनकी स्थिति बहुत चिन्ताजनक हो जाती। मैं अधिक बोल नहीं सकती1 अब तुम आ गयीं। मैं निश्चिन्त हूँ। आइन्दा तुम ही यहाँ की बड़ी मालकिन हो। सब कुछ दायित्व प्रत्यक्ष सुम्हें सौंपकर मुक्त होने का अवसर अर्हन्त ने दिया-यही भाग्य की बात है। पता नहीं मैं कब तक जीवित रहूँगी! तुम लोगों के आने की प्रतीक्षा में किसी तरह जीवित रही आयी।" धीरे से एक्लदेवी ने कहा। दम फूलता जा रहा था, इसलिए बोलना बन्द करना पड़ा।
"आप कुछ मत बोलें। राजमहल के वैद्यजी आये हैं। सब ठीक हो जाएगा। वास्तव में सन्निधान का स्वास्थ्य यात्रा करने लायक नहीं था। वैद्यजी का ही सहारा रहा जिससे यात्रा सुगम हो गयी। वे बहुत अच्छी ओषधि देते हैं। हम सब लोग हैं हो। बारी-बारी से हम आपकी सेवा में हाजिर रहेंगी। इससे माँ और राजलदेवी दोनों को आराम करने के लिए समय भी मिल जाएगा। आप किसी बात की चिन्ता न करें।" शान्तलदेवी ने यों कहकर महामातृश्री को आश्वस्त किया।
"अम्माजी! मैं किस बात के लिए चिन्ता करूं? भगवान् ने जो आयु मुझे दी वह समाप्त होने को आयी है। मेरा मन यही कह रहा है। मैं प्राणभय से यह बात नहीं कह रही हूँ। बिलकुल शान्त चित्त से कह रही हूँ। यदि अभी आयु शेष है तो उसे इसी क्षण धारापूर्वक दान देकर मुक्त होने के लिए तैयार हूँ। किसी भी वैद्य की दवा अब मेरे शरीर को लगेगी नहीं। मुक्त होने की इच्छुक आत्मा को दवा देकर बाँधकर रख नहीं सकेंगे। मैं तुम लोगों के यहाँ पहुँचने तक जीवित रहना चाह रही थी। जीने का संघर्ष बड़ा ही भयंकर संघर्ष है। लौकिक प्रेम और वात्सल्य से जाने के लिए उद्यत प्राणों को रोक रखने का प्रयत्न करना बहुत ही कष्टसाध्य है। तुम सब
10 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन