SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पालदेवी महामातुश्री के शरीर पर मुँह रखकर हिचकी ले-लेकर रो रही थी। वह तुरन्त वहाँ से सन्निधान के शयनकक्ष की ओर भागी। रोज की तरह जगाने की सूचना सफल न रही। किवाड़ खटखटाये। तुरन्त किवाड़ खुल गये। उसी के सहारे चट्टला खड़ी रही, खुलते ही वह गिरने ही वाली थी कि बिट्टिदेव ने उसे थाम लिया। "महामातृश्री..." कहते-कहते उसका गला रुंध गया। "देवी को जगाकर वहाँ भेज दो।" कहकर वह जैसे उठे वैसे ही दौड़ पड़े। शान्तलदेवी भी उठी, तुरन्त उस ओर भागीं। चट्टला उनके साथ ही भाग रही थी। शान्तलदेवी ने कहा, "पण्डितजी को आने दो, सब आवें: नौकरों को दौडाओ। कुछ भी नहीं कहना। सबका आना जरूरी है। पण्डितजी आकर देखें और बतावें-तब तक किसी को मालूम नहीं होना चाहिए।" थोड़ी ही देर में राजमहल के सभी लोग महामातृश्री के शयनकक्ष में इकट्ठे हो गये। खबर पाते ही तुरन्त पण्डितजी भी दौड़े आये। उनके साथ ही गुणराशि पण्डित भी आ गये। परीक्षा की गयी। पद्मलदेवी दिङ्मूद-सी जैसी-की तैसी खड़ो रही मानो काठ मार गया हो। महामातृश्री ने सदा के लिए शान्ति पा ली थी। उनके चेहरे पर की वह शान्ति उनके मृत्यु समय की तृप्ति की सुचक थी। महासाध्वी की जीवन-लीला प्राति से सामान हुई । "ग" ने नपारी निष्ठा को असफल नहीं बनाया। अपनी इच्छा के अनुसार उन्हें हमारे साथ न रहने देकर अपने सान्निध्य में बुला लिया। ऐसी मृत्यु सौभाग्य से मिलती है।" सोमनाथ पण्डित ने कहा। गुणराशि पण्डित भी बोले, "कौन जाने, भगवान् की ऐसी ही इच्छा थी। राजकुमारी को वर्धन्ती के उत्सव का आनन्दानुभव कर, किसी को कष्ट दिये बिना यहाँ से या प्रस्थान करेंगी-इसकी कल्पना कौन कर सकता था? उन्हें, एक और आयु प्राप्त हुई थी, यह शायद इस सभी बन्धुवर्ग की मनौती थी। प्रभु के साथ जब विवाहित हुई तब से मैं उन्हें जानता हूँ। जिस सन्तोष, विनय, सुशीलता से सम्पन्न होकर इस राजमहल में उन्होंने पदार्पण किया, आखिरी दम तक वैसे ही उनका पालन करते हुए आदर्श जीवन बिताकर अपनी इस जीवन-यात्रा को समाप्त किया। उन्होंने अपने जीवन में ऐसा अद्भुत संयम का साधन किया जिसे सर्वसंग-त्यागी संन्यासी भी नहीं साध पाते। ऐसो महिमामयी माता की सेवा करने का अवसर मिलना ही एक महान् भाग्य है।"-सबकी आँखों में आँसू थे। आँसू बहाते बैठे रहे तो क्या होगा? मगर आँसू का बहना तो रुका नहीं। जब बह-बहकर थमता तो एक तरफ का शून्य सभी के अन्तरंग को व्याप्त कर लेता। रोनेवाले रोते रहे, बाकी लोग इस असह्य दुःख को सहन करते हुए यन्त्रक्त् चलते 46 :: पट्टमहादेवी शान्तल' : भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy