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________________ मुझसे कहा था कि राजमहल में कोई भी बात हो, वह यहीं तक सीमित रहनी चाहिए। बाहर किसी को भी पता नहीं चलनी चाहिए।" ''यह सुन, तुम चुप रह गयी बेटी?" ___ "नहीं! मैंने पूछा, 'क्यों?' उन्होंने कहा, 'एक बात कहें तो उसे सैकड़ों रूप देकर लोग तरह-तरह की बातें चलाएंगे। इसलिए ऐसा अवसर नहीं देना चाहिए।' मुझे भी उनका कहना सही लगा।" "ऐसा हो गया तो हम कनपटी लगे घोड़े की तरह हो जाएंगे। स्वतन्त्रता डरकर दूर भाग जाएगी। ऐसा जीना भी कोई जीना होता है?" "मनुष्य होने के बाद किसी-न-किसी नीति-नियम के अनुसार चलना चाहिए न पिताजी? यदि कुछ नीति-नियम न हों तो समाज का अस्तित्व ही कहाँ रह सकता है?" "इसका तात्पर्य है कि तुम्हें कोई पाठ पढ़ाया गया है। बेटी, बुद्धिमती बनने से मैं तुम्हें मना नहीं करता। परन्तु प्रज्ञावती बनने के ढोंग में त्याग के नाम से अपने अस्तित्व को ही समाप्त नहीं कर देना। पहले तुम श्रीवैष्णव, उसके बाद हो रानी। तुम्हारे किसी भी काम से उस श्री वैष्णवपन को अपमानित नहीं होना चाहिए। श्री वैष्णव तत्त्व में 'श्री' के ही द्वारा 'विष्णु' का अस्तित्व है। तात्पर्य यह कि स्त्री की बात को पुरुष माने-इसी में उस श्रीत्व का बड़प्पन है। अगर तुम अपने उस श्रीत्व की रक्षा न कर सकोगी तो हमारी रक्षा कैसे सम्भव होगी?" "क्यों पिताजी आपको ऐसा भय? किसी ने आपके धर्मदर्शित्व में बाधा डाली ___ "जब तक श्री आचार्यजी का वरदहस्त है तब तक किसी को हस्तक्षेप करने का साहस नहीं।" "तब आपको और कौन-सी रक्षा चाहिए? आपको सुखी जीवन व्यतीत करने के लिए इस धर्मदर्शित्व से सबकुछ प्राप्त हो रहा है न?" "तुम्हारी यह क्या बात है बेटी? रानी होने की हवा तो नहीं लग गयी। यही लगता है। मुझे क्या पड़ी है ? मैं अकेला। कहीं कुछ नहीं मिला तो भिक्षावृत्ति है ही, उसी से पेट भर लूँगा। या फिर मैंने जो थोड़ा-बहुत सीखा है, उसे दो-चार को पढ़ाकर पेट भर लूँगा। मुझे अपनी चिन्ता नहीं। जो भी चिन्ता है, वह तुम्हारे ही बारे "पिताजी. आपको इस सम्बन्ध में चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं। महाराज ने मेरे लिए सभी प्रकार की व्यवस्था की है।" ''बेटी, मैं तुमसे क्या कहूँ? तुम अभी बच्ची हो। तुम हमेशा इसी यादवपुरी में नहीं रह सकोगी। तुम्हारा रहना तो राजधानी ही में निश्चित है। मैं 386 :: पट्टमहादेली शान्तला : भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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