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________________ "पिताजी! महाराज बहुत अच्छे हैं। वे मुझे बहुत प्यार करते हैं। मैं कुछ माँगें वे अस्वीकार नहीं करते। मुझे ही सूझता नहीं कि क्या पूछना चाहिए।" "सो तो ठीक है। महाराज बहुत उदार हैं। आचार्यजी की बात उनके लिए वेद-मन्त्र है। मैंने यह नहीं पूछा। मैंने पूछा कि राजमहल के लोग तुम्हें कैसा मानते हैं ?" "कैसा मानते हैं? इनके क्या माने ? रानी ही की तरह मानते, देखते हैं। बहुत गौरव से व्यवहार करते हैं। " " 'अर्थात् कोई ऐसा व्यवहार नहीं हो रहा है, जिससे तुम्हें दुःख हो ।" "ऐसा क्यों होगा ? उन्हें पता है कि मैं रानी हूँ और तिस पर महाराज की अत्यन्त प्यारी हूँ।" " यह बुद्धिमानी की बात हुई। पुजारी घराने में बढ़नेवाली तुमको यहाँ का वातावरण ठीक लगेगा या नहीं-यही मेरा संशय था। बेटी, नवीन दाम्पत्य का जीवन सदा ऐसा ही हुआ करता है। बहुत रसमय लगता है । इस रसानुभव की धुन में अपनी सजगता को भुला न देना। इसलिए तुम सदा महाराज से ऐसा ही बरतना कि जिससे तुम उनकी चहेती ही बनी रह सको ।" "इसका आशय ?" "जिसनी तुम उनकी चहेती बनकर रहोगी, उतनी ही अधिक वे तुम्हारी बात मानेंगे। यह कला तुम रहनी चाहिए। 44 'अब तक जो बात नहीं कहा करते थे, वह आज क्यों आपके मुँह से निकल रही है ?" " 'यह बताओ कि तुम्हारा मैं क्या लगता हूँ ?" " पिता । " " महाराज का ?" "ससुर ।" " तो मेरे लिए वह स्वातन्त्र्य नहीं है ?" H 'कौन कहता हैं कि नहीं है ?" "मन्त्रीजी ने आज एक बड़ा भाषण ही दे दिया। कहते हैं कि मुझे यह कहना नहीं चाहिए कि मैं महाराज का ससुर हूँ।" "क्यों ?" "ऐसा कहने का अर्थ बताते हैं, अपनी प्रतिष्ठा व हैसियत को बढ़ाना है। इसलिए मुझे यह कहना नहीं है। राजमहल के विषय में बाहर कहीं किसी से कुछ नहीं कहना चाहिए।" " सो बात क्या है, मुझे मालूम नहीं पिताजी! एक बार महाराज ने स्वयं पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन : 365 ;
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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