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________________ दक्षिण में ही रह गये।" "तो उनकी इच्छा के अनुसार आप लोगों के दिन सुखपूर्ण रहे होंगे!" "दो जीव एक होकर रहे । वास्तव में वे दो वर्ष ही मेरे जीवन के अत्यन्त सुखमय दिन हैं। विक्रम संवत्सर आया तो मेरे जीवन पर अचानक ही दुर्दिन की घटाएँ छा गयीं। अचानक ही मेरी पत्नी का वह मामा आया। मेरी पत्नी की स्फूर्ति बढ़ गयी। उसकी उस तरह वृत्ति मुझे अच्छी नहीं लगी। छिपाये रखने का मेरा स्वभाव ही नहीं। मैंने पूछ लिया। उसने कहा, 'आपको क्या पता? मायका छोड़कर दो साल हो गये। इधर से कोई आये तो मुझे कुछ उत्साह नहीं होगा? क्या मेरे मायकेवालों से आपकी अनबन है?' उस विषय को वहीं तक रहने दिया। वह दो-चार दिन रहा, फिर चला गया। हमारा पारिवारिक जीवन पहले जैसा चलने लगा। इसके एक महीने के बाद अच्छी शिला का संग्रह करने के लिए मैं कोनेहल्लि की ओर एक पखवारे के लिए चला गया। मेरे दूर की रिश्ते की एक बुढ़िया थी जो मदद के लिए उस बीच मेरे घर रही। इसके लिए बुढ़िया से कहकर मैंने व्यवस्था की थी। अपना कार्य समाप्त कर मेरे लौटने के बाद एक महीना बीता। सुबह-सुबह मेरी पत्नी का ओकना शुरू हो गया। आया को बुलवाकर जाँच कराने के बाद पता लगा कि मेरी पत्नी गर्भवती है। हम दोनों को वास्तव में प्रसन्नता ही हुई. इस बात को सुनकर। इसी में कुछ महीने बीते। मेरी पत्नी का मन मायके जाने को हुआ। उसने कहा, 'प्रथम प्रसव के लिए वहीं जाऊँगी।' मैंने कहा, 'दूर की यात्रा है, साथ कोई नहीं, भेजें भी कैसे?' वह बुढ़िया किसी काम पर मेरे यहाँ आयी थी तो उसने बताया--'उसका मामा आजकल में ही आनेवाला है, उसके साथ भेज दो।' मैंने पूछा, 'आपने उन्हें कहाँ देखा था?' "जब तुम कोनेहल्ली गये थे तब वह यहाँ आकर एक सप्ताह रहा था। जब जाने लगा तो सप्ताह के बाद आने की बात कह गया इसीलिए कहा।' बुढ़िया ने कहा। यह सुन मेरे शरीर में एक तरह का कम्पन पैदा हो गया। चुप रहना ठीक न समझकर कह दिया, 'उसे पहले आने दो, फिर देखा जाएगा।' यों कुछ दिन बीते। मेरी पत्नी और उसके मामा के व्यवहार के बारे में मेरे मन में शंका उत्पन्न हो गयी। फिर भी मैं संयम से रहा, अपनी भावना को प्रकट नहीं किया। जैसा उसने कहा था, वह आया, परन्तु मैंने यह कहकर कि अपनी पत्नी को नहीं भेज सकता, उसे लौटा दिया। मेरी पत्नी ने दो-तीन दिन खाना-पीना छोड़ दिया। मैंने उसकी परवाह नहीं की। पत्थर में सजीवता को, पूर्णकला को भर सकनेवाला मेरा हृदय पत्थर ही बन गया। बच्चे का जन्म हुआ, मेरी पत्नी लड़के की माँ बनी। परन्तु मैंने जो जन्मपत्री बनायी उसके अनुसार बच्चे का पिता नहीं पहचाना जा सका। लज्जा और अपमान ने मुझे घेर लिया। दिशाहीन होकर पट्टमहादेवो शान्तला : भाग तीन :: 375
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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