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बाद ये भी खिसक गयीं और भाइयों के आश्रय में रहने लगी।
इस हालत में पिता की सब जर-जायदाद पद्मलदेवी के लिए ही छोड़ रखने पर तथा राजमहल की ओर से मासिक अनुदान बराबर मिलते रहने पर उसका अकेली रहना और यों एकान्त जीवन बिताना शान्तलदेवी को सही नहीं लगता था। महामातृश्री कुछ कहती न थीं तो भी उनकी भावना यही थी कि पालदेवी का व्यवहार ही अपने बड़े बेटे की इस मृत्यु का कारण है। इस वजह से उन्हें पद्यलदेवी के विषय में असन्तृप्ति की ही भावना रही। जब कभी आमन्त्रित करने का प्रसंग होता तो इतना ही कहती--"यह क्यों आएगी? तुम लोगों को तो एक व्यामोह है। देखना यह आएगी नहीं।" इन दोनों को एक करना दुःसाध्य कार्य है-इस बात को शान्तला जानती थीं। शान्तलदेवी की अभिलाषा मात्र यही थी कि सम्पूर्ण राजपरिवार एक होकर रहे। इस बार जब महामातृश्री सख्त बीमार हुई तो और सब लोग उपस्थित रहें, वही पपलदेवी अकेली न हो यह ठीक नहीं-यह विचार कर महामातृश्री ने कहा था, "सिन्दगेरे को भी समाचार भेज दें। ऐसा सोच लेना उचित नहीं कि सम्बन्ध टूट गया। इससे लोक क्या समझेगा! एक बार उसे भी देख लूँ।"
शान्तलदेवी को यह अच्छा मौका मिल गया। चट्टला-मायण से विचार-विमर्श करके किसी तरह पालदेवी को खुलवा ही लिया।
जब वह मायण के साथ राजमहल में आयी तो वहां एक मौन छाया हुआ था। मायण को डर लगा कि यह हो क्या गया। राजमहल के द्वार पर रथ के पहुँचते ही अन्तःपुरवालों को खबर मिल गयी।
शान्तलदेवी को चट्टला से उनके आने की खबर मिली तो वह महामातृश्री के पलंग से उठकर बाहर आ खड़ी हो गयीं। राजपरिवार के अन्य सभी जन मौन हो अन्दर अपने-अपने आसनों पर बैठे रहे । महामातृश्री के शयनकक्ष के द्वार पर शान्तला ने एपलदेवी के चरण छूकर प्रणाम किया और बोली, "दीदी आ गयी न? मेरी आशा सफल हो गयी।"
पद्मलदेवी को यह ठीक न लगा। पट्टमहादेवी ने उसके पैर छुए? न, न। फिर भी उससे यह रोका न गया। उसने धीरे से पूछा, "महामातृ श्री कुशल हैं?"
"प्रज्ञा है। बोल नहीं सकती।" फिर चट्टला से कहा, "महारानीजी को अन्दर ले जाओ। उनके हाथ-पैर धुलाओ। रास्ते की धूल चढ़ गयी है। धोकर आ जाएँ। ठीक है न?" शान्तलदेवी बोलीं।
पालदेवी चट्टला के साथ चली गयी और हाथ-पैर धोकर जल्दी ही लौट आयी। तब तक शान्तलदेवी द्वार पर ही खड़ी रहीं।
तीनों अन्तःपुर में गयीं। अन्दर पैर रखते ही पद्यलदेवी का दिल धक-धक
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 33