________________
सैंभाल लेती थीं। आज इतनी कठोर क्यों? उनके कहने के ढंग में ऐसा परिवर्तन क्यों हो गया? शायद मेरे ऊपर बहुत क्रोध आ गया होगा। ऐसी दशा में सुब्बला को भेजकर उनके क्रोध का निवारण करना होगा-यों सोचता-विचारता अपने विश्रामागार में पहुंचा। सुब्बला वहाँ नहीं थी। उस पुलिन्दे को खोला, एक-एक कर चित्रों को देखने लगा। उनकी कलाकारिता को देख उसी में तल्लीन होकर आत्मविस्मृत हो गया। उसे समय का भी पता न लगा। इस बीच में सुव्वला ने आकर झाँका। उसकी इस तल्लीनता को देख वह वहाँ से खिसक गयी थी। सूर्यास्त के पूर्व भोजन हो ही चुका था। केवल सोना मात्र था।
उस दिन पति ने जो व्यवहार किया था, उससे उसका मन दुःखी अवश्य था। बेचारी क्या करे? निस्सहाय थी। छोटी उम्र, अनुभवहीन बह कर ही क्या सकती थी? सन्निधान के युद्ध-यात्रा पर चल देने के बाद पट्टमहादवी ने उसे जो सलाह दी, व्यवहार के ढंग आदि बताकर जैसे समझाया था, उनकी कल्पना तक वह नहीं कर सकती थी। वह इतना तो समझ गयी थी कि पट्टमहादेवी ने उसके पति के भविष्य के बारे में कितनी गम्भीरता और गहराई के साथ सोचकर अपने विचार पक्के कर रखे हैं। ऐसी हालत में उसे अच्छी तरह मालूम हो गया कि उसके पति का यह हठ ठीक नहीं। उन्होंने अनुसरण करने के लिए जो दिशा-दर्शन किया, वह कितनी अच्छी हैं! मनुष्य को जब असन्तोष होता है और जब समझता है कि उसने भूल की है और चाहनेवाले भी कहें कि वह ठीक नहीं, तब वह समझने लगता है कि चेतानेवाला शत्रु ही है, इस तरह के विचार से प्रक्रिया विपरीत ही होती है। इस तरह की स्थिति न हो-इसलिए पट्टमहादेवी ने समझाया कि किस तरह का व्यवहार होना चाहिए। सुनते हुए तात्कालिक रूप से सही न लगने पर भी, जब पतिदेव शिल्पियों के पास पट्टमहादेवी के आदेशानुसार जाने लगे तो उसका मन परिवर्तित हो गया। सुबला के अन्दर कुतूहल पैदा हुआ कि यह जाने कि उसके पतिदेव ने क्या किया। अन्न उसे जीवन का एक नया पाठ मिला था। अतः उसने पहले पट्टमहादेवीजी से एकान्त में मिलकर फिर अपने पतिदेव से मिलने का निश्चय कर लिया। पट्टमहादेवी ने सुब्बला को सपझाकर बताया कि उससे किस तरह से व्यवहार किया जाय। फिर कहा कि-"मैं जानना चाहती हूँ कि मेरी बातों का उस पर कैसा असर पड़ा है? वह मुझ पर असन्तुष्ट हो या मेरी बातों पर टीका-टिप्पणी भी करे उसे मुझे बता देना। तुम उससे जब बात करो तो ऐसी करो जिससे उसे ठीक लगे। तुम्हारा व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि तुम कुछ नहीं जानती हो। उसे पीछे चलकर इस राष्ट्र और सिंहासन का रक्षक बनकर रहना होगा। उसे इस योग्य बनाना हमारा कर्तव्य है। इसके लिए तुम्हें मेरी सहयोगी होना होगा। हमारे इतिहास में उसका
पट्टमहादेवी शासला : भाग तीन :: 243