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नाम स्थायी बनकर रहना चाहिए। तभी महामातश्री ने उसकी माँ को जो वचन दिया था उसका पालन हम करने में सहायक बनेगी। सम्भव है कि जब वह आए तुम वहीं न रहो, तब यह क्रोधित भी हो सकता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं। अब जाओ!'' कहकर शान्तलदेवी ने उसे भेज दिया।
सुचला जब आयी तब बिट्टियण्णा चित्रों को देखने में तल्लीन था। दोतीन बार झौंककर देखा, तब भी वह तल्लीन रहा। वह अन्तःपुर की छत पर जाकर चाँदनी में, ठण्डी-सुगन्धित हवा में नींद लगने तक आराम से बैठी रही। जब नींद लगने लगी तो वहाँ से उठकर आयी तब भी वह चित्रों में ही निमग्न था।
अन्दर आकर जब उसने किवाड़ बन्द किये तो कुछ आवाज हुई। इससे बिट्टियण्णा का ध्यान बँट गया। उसने सिर उठाकर दीप की ओर देखा, प्रकाश मन्द पड़ गया था। उसने पूछा, "कहाँ गयी थी, सुब्बला?"
"मैं राजमहल को छोड़कर कहाँ जाऊँगी।" "क्या समय है?"
"चांद आकाश के बीच पहुंच चुका है। शायद आपको नींद नहीं लेना। इन चित्रों को देखते-देखते आपको पता तक नहीं लगा है कि चारों ओर क्या हो रहा है। हम जैसी जिन्हें कोई काम नहीं, कब तक जागती रहें? आपकी एकाग्रता भंग न हो इसलिए छत पर बैठ समय बिताती रही। नींद जोरों से लगने लगी तो अब पूरी तौर से अन्दर आ गयी और द्वार बन्द कर दिया।"
"यह पूरी तौर से अन्दर आने का क्या अर्थ?"
"चार बार आयी, झाँककर चली गयी। आपकी तन्मयता इतनी गहरी थी। इसलिए तब अन्दर आयी नहीं। अच्छा रहने दें; आपको इतनी तल्लीनता में मग्न करने के लिए ये चित्र सुन्दरियों के हैं क्या?"
"सारा विश्व इसमें है, तो सुन्दरियाँ नहीं होंगी? परन्तु यह सब तुम कैसे समझोगी?"
"हाँ, मैं पूर्ख हूँ। मुझे क्या अनुभव?" कहती हुई कुछ रुष्ट भाव से जाकर पलंग पर चादर ओढ़कर लेट रही।
बिट्टियण्णा चित्रों के उस पुलिन्दे को वहीं रख पलंग के पास गया। "ओह ! तुम्हारा ध्यान न रखने के कारण ही क्रोधित हो? इसका निधारण तो करना ही होगा अध।" कहते हुए मन्द होती दीप की लौ बुझा ही दी। थोड़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक जोर-जोर से साँस चलती रही--फिर वह मौन चंचल हास्य में बदल गया।
"अब बस करिए; मुझसे अधिक हँसा नहीं जाता।" विपर्यस्थ सुम्बला ने कहा।
:44 :: पदमहादेवो शान्तला : भाग तीन