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________________ "कहीं भी रहें तब आ सकते हैं।" बिट्टिदेव ने कहा। "यहाँ से रवाना होने के बाद फिर कहाँ की यात्रा होगी–सो कह नहीं सकते। इप सप सारे . न में - भावना ऊपन्न राई है। फिर दर्शन-भाग्य मिलेगा या नहीं कौन जाने । हमारी एक अभिलाषा है उसे पूर्ण करें।" "वेलापुरी जाने पर इधर नहीं आएँगे-ऐसा तो नहीं। श्रीश्री जी वहाँ नहीं आ सकेंगे-सो भी नहीं। हम फिर नहीं मिल सकेंगे. ऐसा सोचने का भी कोई कारण नहीं। श्रीश्री की अभिलाषा पूर्ण करने के लिए हम तैयार हैं, आदेश हो।" बिट्टिदेव ने कहा। "वही उस दिन महाराज ने कहा था न कि 'अब भविष्य में हम विष्णुभक्त होंगे' उसे विधिपूर्वक सम्पन्न करें-यही हमारी आकांक्षा है। हमें ही यह कार्य करना होगा। हमारी उम्र सन्निधान देख रहे हैं इसलिए शुभस्य शीघ्रम्...।" बिट्टिदेव ने शान्तलदेवी की ओर देखा। "पोयमल वंश की यह रीति चली आयी कि 'प्राण जाएँ पर वचन न जाई।" शान्तलदेवी ने कहा। आचार्य ने कहा, "सत्य ही है।" बिट्टिदेव ने कहा, "समारम्भ केवल राजमहल तक ही सीमित हो।" "महाराज की इच्छा। पट्टमहादेवीजी ने भी कहा है, उनकी इच्छा भी है कि प्रचार न हो। अब दो-तीन दिनों में कोई शुभ-मुहूर्त देखकर आण्डवन का कैंकर्य करेंगे।" कहकर आचार्यजी उठ खड़े हुए। यथाविधि राजदम्पती ने उन्हें विदा किया। अगले तीन-चार दिनों में यथाविधि आचार्य को बिट्टिदेव का गुरु बनाने का उत्सव राजमहल में सम्पन्न हुआ। इस स्वीकृति देने के बाद जाने से पूर्व आचार्यजी ने कहा, "महाराज के आज के इस कार्य से हमें बहुत आनन्द हुआ है। ऐसा लग रहा है कि एक बोझ उतर गया है। इस शुभ अवसर पर आपसे एक निवेदन है। इस समारम्भ का लक्ष्य विष्णु को परात्पर शक्ति के रूप में समझना ही है। इस ज्ञान का वर्धन संसार में होना चाहिए। आज का यह कार्य उसके वर्धन का ही संकेत है इसलिए अब भविष्य में महाराज हस्ताक्षरांकित करते समय–'विष्णुवर्धन' अंकित करें यह नाय आचन्द्रार्क स्थायी होकर रहना चाहिए।" "बिट्टि, विष्णु सब एक हैं।" शान्तलदेवी ने कहा। "फिर भी अंकित करते समय बिट्टिदेव आता ही रहा है। हमें जो शासन पत्र दिया है उसमें 'बिट्टिग' है। हमें बिट्टि, विष्णु नाम से भी प्रधान 'वर्धन' है। यह श्री वैष्णव सिद्धान्त के वर्धन का संकेत है। इसलिए आगे वह भी अंकित रहे, यही हमारा निवेदन है। इस सन्दर्भ में एक और जिज्ञासा करना चाहते हैं। इतना कहकर आचार्यजी रुके। पमहरदेवो शान्तला : भाग तीन :: 205
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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