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________________ खड़े होने का वचन माताजी को दिया था, और सामना न करने का वादा किया था, वहीं अब ऐसा व्यवहार करें? पता नहीं आगे और कैसे-कैसे प्रसंगों का सामना करना पड़ेगा। अब आचार्यजी को जो वचन दिया उसका पालन कैसे करेंगे? यही विचार कर कि यह नहीं होगा, हमने मन्दिर के शिलान्यास करने से, आचार्यजी के चाहने पर इनकार कर दिया था। मगर मुझे आचार्यजी के ही सामने सन्दिग्धता में डालकर, आचार्यजी की इच्छा के अनुसार, हम ही से वह कार्य करवाया। ऐसी हालत में आचार्यजी को हमने जो वचन दिया उसका पालन हो सकेगा? आनी भानन्य दो तो हमने छिपा नहीं रखा। हम पहले से कह रहे हैं कि जहाँ प्रमाण मिल वहाँ हमारा विश्वास जमेगा। इस पर रेविमय्या ने जो अपना प्रत्यक्ष अनुभूत चित्र पेश किया और विवरण दिया, उसकी आचार्यजी ने जो व्याख्या की और कहा वह भी तो अन्त:प्रेरणा ही है! इससे भी बढ़कर, यह बात थी कि इस दिगम्बरत्व के प्रति एक असत्य भाव पहले ही से मेरे मन में रहा। इस सम्बन्ध में चर्चा हुई बाहुबली स्वामी के ही सन्निधान में और मान भी लेना पड़ा कि यह असह्य नहीं, सह्य है, वहाँ असह्य भाव नहीं, बालक का निर्मल और निर्दोष भाव है। इस तरह की दुविधा की स्थिति में मन झूलता रहा है। ऐसी हालत में यह एक प्रमाणित स्थायी भूमि मिल गयी, इसी धीरज से आगे बढ़ने की सोची कि अब यह लीक भी छूटने की-सी लग रही है, अब आगे . क्या हो?-यों बिट्टिदेव के मन में जिज्ञासा चल रही थी। वास्तव में इन बातों पर निश्चिन्त और कोई रहीं तो वह शान्तलदेवी ही थीं। उनकी पहले से भी एक निश्चित धारणा रही। उनका विश्वास इतना गहरा और अटल था कि किसी भी तरह के किसी भी कारण से कोई भी उसे हिला डुला नहीं सकता था। उनका पक्का विश्वास था कि पति-पत्नी के सम्बन्ध में भी इससे कभी किसी तरह की बाधा उपस्थित नहीं हो सकती। क्योंकि उनका वियाह हुआ था जैन मतावलम्बी से ही। परन्तु अब ऐसी परिस्थिति आ सकती है-इसका भान होते ही उस विचार को अन्दर-ही-अन्दर घुन की तरह छेदने न देकर खुले मन से चर्चा करके अपने निर्णय पर विजय भी प्राप्त कर ली। ऐसी हालत में उन्हें सोचने-विचारने के लिए कुछ रहा ही नहीं। शान्तलदेवी ने इस कारण से अपने सहज व्यवहार में कोई परिवर्तन ही नहीं किया। बाकी लोगों के विचार अभी भी कोई निश्चित रूप धारण नहीं कर सके थे। ऐसा लगता था कि वे पीछे हटते जा रहे थे। इसी बीच एक दिन शान्तलदेवी ने बिट्टिदेव से राजधानी बेलापुरी को बदलने के विषय में बात छेड़ो। "क्यों? यहाँ रहना पसन्द नहीं, या आचार्यजी का सान्निध्य अच्छा नहीं लग रहा है ?" बिट्टिदेव ने पूछा। पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तोन :: 203
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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