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________________ गया था। प्रचलित प्रकार से भिन्न बाहु और चतुरस्त्र आकार में उसकी रूपरेखा बनी थी। सात-आठ महीनों में कार्य सम्पूर्ण करने का भरोसा होय्सलाचारी ने श्री आचार्य को दिया। नागिदेवण्णा का आर्य इसमें अधिक था। सन्निधान ने उन्हें बुलाकर विशेष दिलचस्पी लेने की अनुमति भी दे दी थी। मन्दिर निर्माण का कार्य अविच्छिन्न गति से चलने लगा था। बाहर से भी अनेक शिल्पी जल्दी से आकर एकत्रित हो गये। राजमहल में प्रत्येक के अन्तरंग में उस दिन आचार्यजी के समक्ष विश्लेषण हो जाने के बाद इस मतान्तर के विषय में नये-नये विचार आने लगे। जो निश्चित- सा होकर एक दिन राजमहल में विचार प्रारम्भ हुआ तो विचार-विनिमय के पश्चात् परिवर्तन होने लगा। अम्मलदेवी शान्तलदेवी की रीति को देखकर दंग रह गयी। राजलदेवी का भी यही हाल था। दोनों ने इस सम्बन्ध में बहुत चर्चा की। यह ठीक है या नहीं-इसका निर्णय उनसे नहीं हो सका। शान्तलदेवी ने मतान्तर न होने का निर्णय ही कर लिया था। फिर भी उन्होंने मन्दिर के शिलान्यास कार्य को स्वीकृत कराया सन्निधान से; यह क्यों? यह कुछ भी उन लोगों की समझ में नहीं आया। इस सम्बन्ध में उनसे सीधे पूछने का उन्हें साहस नहीं हुआ। उन लोगों की मानसिक स्थिति डाँवाडोल ही रही। बिट्टिदेव के मन में वस्तुतः एक शून्य व्याप्त था। राजकुमारी को अस्वस्थता के कारण उस समय उनके मन में जो असहा-वेदना उत्पन्न हो गयी थी और संघर्ष चला था, उसके आकस्मिक ढंग से अच्छे हो जाने से उस दैवी शक्ति के दबाव में पड़कर कुछ बिना आगा-पीछा सोचे-विचारे उन्होंने आचार्य के सामने कह दिया था : 'मैं विष्णुभक्त होकर ही जीवन बिताऊँगा'। शायद उनका विचार था कि जो भावनाएँ पन में उठी थी, वे उसी तरह शान्तलदेवी के भी मन में उत्पन्न हुई होंगी; माँ होने के कारण, उन भावनाओं का उनपर अधिक दबाव भी पड़ा होगा। ऐसे में आचार्य की शरण में जाने का मन होना सहज है; जैसा मेरे मन में हुआ वैसा उनके भी मन में अवश्य हुआ है-यह उनकी निश्चित धारणा थी। मगर वह गलत साबित हुई। स्वयं जिस मत का अनुसरण करेंगे उसी का अनुसरण वह भी करेंगी-- यही भावना। मेरे हित और सुख की आकांक्षा से, मुझसे बड़े प्रेम से विवाह करनेवाली शान्तलदेवी मेरे लिए सबकुछ कर सकती है-यही उनका विश्वास था। अब तक हुआ भी वही था। उनका विचार था कि अगर विरसता उत्पन्न हो सकती है तो वह बम्मलदेवी के विचार में सम्भव थी। मगर वैसा कुछ नहीं हुआ, बल्कि उस सुखमय निर्णय करने में प्रस्यक्ष और परोक्ष रूप से वही सहायक बनी। ऐमी यह शान्तलदेवी जिन्होंने मेरे सामने तलवार लेकर कभी न 202 :: पट्टमहादेगे शान्तला : भाः तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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