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है; यही हमारे वंश का मूल स्थान है। परन्तु हम सब जिन-भक्त हैं। कैसे? साधना के मार्ग में समय-समय पर परिवर्तन होता आया है। भगवान की कल्पना ही पानव-प्रजा-प्रसूत है; वह भी उस समय से आज के इस समय तक एक ही रूप में नहीं है; वह भी स्थायी नहीं रही है। ऐसी हालत में विश्वास के मूल्य के लिए मानदण्ड कौन से हैं? किवाड़ बन्द कर, अन्दर जितना प्रकाश होगाउतना ही प्रकाश है, मानना गलत कल्पना है? हमारी जानकारी से भी अधिक प्रकाश है-इस बात का ज्ञान होने के बाद उस प्रकाश से फायदा उठाना क्या गलत हैं?11
"प्रकाश के होने की बात सप्रमाण साबित हो जाय तो उसका उपयोग, हममें स्थित विश्वास के साथ समन्वित कर करना चाहिए, न कि अपनी बद्धमूल विश्वास की जड़ को ही हिला देना चाहिए।"
"यह भी एक रीति है। साथ ही, जहाँ प्रकाश हो वहाँ मन को केद्रित करना भी एक रीति है।"
"यह पतंगे की रीति है।" "पतंगे की रीति में शारीरिक आकर्षण है। परन्तु यहाँ चित्ताकर्षण है।" "चित्ताकर्षण सामूहिक नहीं होता, वह सदा वैयक्तिक होता है।"
"सच है। वेदों की भूमि पर स्थित धर्म वैयक्तिक है। हर व्यक्ति परिपूर्ण हो जाय तो सम्पूर्ण समाज पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। यह उपनिषदों के समय से प्रचलित रीति है।"
"परन्तु सन्निधान का अत्यन्त उत्साह व्यक्तिगत होने पर भी यह वहीं तक सीमित होकर पर्यवसित नहीं होता, वह सामूहिक अन्धश्रद्धा के लिए रास्ता खोल देता है। इसलिए सन्निधान जो भी कदम उठाएँ बड़ी सतर्कता से उठाएँ। यही होना चाहिए।"
“मतलब?"
"सन्निधान जानते हैं कि लगाम मेरे हाथ में नहीं है, इसलिए इतनी सारी बातें कहनी पड़ी।"
"बात की लगाम लगाने पर ज्ञानोदय के रास्ते में परिवर्तन हो जाएगापट्टमहादेवी की राय है?"
"मतलब हुआ कि ज्ञानोदय हुआ है। उनके लिए एक नया मार्ग मिला है। किसी से भी उसका परिवर्तन सम्भव नहीं; यही न हुआ?"
"हाँ।"
"माने यह कि अब भविष्य में सन्निधान वासन्तिका देवी के प्रसादलब्ध नहीं। श्रीमुकुन्दपादारविन्द वन्दन नन्दन-है न?"
180 :: पट्टमहादेवी सान्तला : भाग तीन