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"इसमें क्या गलती है ?"
"गलती कहनेवाली मैं कौन होती हूँ। अपने विश्वास में लक्ष्य साधन करनेवाले नये विश्वास को लेकर कौन-सी सिद्धि की साधना कर सकेंगे?"
'जन्न उत्साह भरपूर होता है तब कुछ भी साधा जा सकता है।"
"चाँद से समुद्र उमड़ता है परन्तु उससे पानी अधिक नहीं हो जाता | चाँद के आकर्षण के कम होते ही वह अपनी पूर्व स्थिति को पहुँच जाता है। आज जो उत्साह दिख रहा है वह भी ऐसा ही है।"
"तो पट्टमहादेवीजी को श्री आचार्य का मार्ग गलत प्रतीत हुआ है?"
"मैंने ऐसा कब कहा? हमारा रास्ता भी सुभद्र नींव पर स्थित है, खरा है। ऐसी हालत में अन्य मार्ग क्यों? यही मेरा मत है।"
"यह भी मात हुई. बाद मा बार है जब पार चाहिए? पुराना ढीला प्रतीत हो और नया सुभद्र मालूम पड़े तब करना चाहिए?"
"ऐसी भावना जब हो जाय तो इसकी कोई दवा ही नहीं।"
इतने में रेत्रिमय्या आया और बोला, "बाहुबली स्वामी के दर्शन करने के लिए पोचिकब्बे का पति तेजप, जो श्रवणबेलगोल गया था, दर्शन करने आया है। आज्ञा हो तो..."
"यहीं बुला लाओ।" शान्तलदेवी ने कहा।
कुछ ही क्षणों में रेविमय्या, तेजम के साथ आया और विनीत हो महाराज और पट्टमहादेवी को प्रणाम कर एक और खड़ा हो गया।
"कब आये तेजम?" शान्तलदेवी ने पूछा।
"अभी आया। सुना कि पोचि को यहीं रख लिया गया है। घर में भोजन आदि से छुट्टी पाकर प्रसाद लेकर यहाँ चला आया।"
"प्रसाद...कहाँ...?"
"अभी आया जाता है। परात में सजाकर पोचि अभी लेकर आ रही है।" तेजम कह हो रहा था कि इतने में पोचिकब्बे धीरे-धीरे प्रसाद के परात को लेकर आयो। पट्टमहादेवी के सामने प्रस्तुत किया। और कहा, "स्वीकार करें।" तेजम ने भी पोचिकच्छ का साथ दिया।
शान्तलदेवी ने परात को लेकर पास के एक पीठ रख दिया। और पूछा, "तुम्हारी यात्रा सम्पूर्ण रीति से ठीक चली?"
"हाँ, इसी के फलस्वरूप राजकुमारीजी स्वस्थ हुई हैं।"
"तुम्हारी यात्रा और राजकुमारी का स्वस्थ होना-इन दोनों का क्या सम्बन्ध ?।। बीच में बिट्टिदेव ने पूछा।
शान्तलदेवी ने अपने और पोचिकम्बे के बीच जो बातचीत हुई थी उसे है
पट्टमहादेत्री शान्तला : भाग तीन :: 181