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________________ GH 'जब एक-दूसरे के अलगाव का समय निकट होने लगता है तब ऐसा ही हुआ करता है ।" मारसिंगय्या ने कहा। बिट्टिदेव और शान्तला मौन भाषा में ही एक-दूसरे से विदा हुए। शेष लोगों ने युवराज और युवरानी के पास अपनी कृतज्ञतापूर्वक वन्दना पहुँचाने को कहा। बिंदा के समय माचिकब्जे की आँखें आँसुओं से भरी थीं। सोसेकरु और बलिपुर जानेवाले दोनों दल पृथक्-पृथक् अपने-अपने गन्तव्य स्थान पहुँचे । दिन व्यतीत होने लगे । बाणऊरु से बिदा होने के बाद विट्टिदेव, रेविमय्या वगैरह, यदि चाहते तो जावगल्लु, दोरसमुद्र और बेलापुरी से होकर सोसेऊरु पहुँच सकते थे। परन्तु रेविमध्या ने પ્રમુ से जो आदेश पाया था उसके कारण इस रास्ते से जाना नहीं हो सका था। इसलिए वे जावगल्लु, वसुधारा से होकर सोसेऊरु पहुँचे। वास्तव में वे रास्ते में कहीं नहीं ठहरे बाणऊ से सुबह का नाश्ता कर रवाना होने के बाद एकदम सीधा शाम तक सोसेकरु ही पहुँचे। युवरानी जी राजकुमार के सकुशल पहुँचने पर बहुत खुश थीं। उनको इसमें कोई सन्देह नहीं था कि राजकुमार की सुरक्षा व्यवस्था में कमी न रहेगी। फिर भी मन में एक आतंक छाया रहा। खासकर दोरसमुद्र में अपने पतिदेव के मन को परेशान करनेवाली घटना जो घटी, उसका परिचय होने के बाद युवरानी के मन में, पता नहीं क्यों, एक तरह का आतंक अपने-आप पैदा हो गया था। जिस बात से प्रभु परेशान थे उसका इस आतंक भावना से कोई सरोकार न था। फिर भी सदा कल्पनाशील मन को समझाना भी सम्भव नहीं । राजकुमार, जो सकुशल लौटा था, कुशल समाचार और कुछ इधर-उधर की बातें जानने के बाद, बिदा होकर युवराज के दर्शन करने उनके पास गया। बिट्टिदेव से बातें करने के बाद माँ एचलदेवी अनुभव करने लगी कि स्वभाव से परिशुद्ध हृदय और अधिक परिशुद्ध हुआ। वह उसके विशाल से विशालतर मनोभाव को जानकर बहुत सन्तुष्ट हुई। वह सोचने लगी कि इस तरह का विशाल मन और शुद्ध हृदय सिंहासनारूढ़ होनेवाले में हो तो प्रजा के लिए और उसकी उन्नति के लिए कितना अच्छा रहेगा। सोसेऊरु लौटने के बाद रात को अपने पतिदेव युवराज एरेयंग प्रभु ने जो बातें बतायी थीं वे सारी बातें एक-एक कर स्मरण हो आयीं। "इसका तात्पर्य यह कि मेरे स्वामी एरेयंग प्रभु का महाराजा बनना इस मरियाने दण्डनायक को वांछनीय नहीं। कैसी विचित्र बात हैं। खुद महाराजा ने इस बात की स्वयं इच्छा प्रकट की, उसी बात को एक पेचीदगी में उलझाकर युवराज के ही मुँह से नाहीं कहलान्स हो तो इस कुतन्त्र के पीछे कोई बहुत बड़ा स्त्रार्थ निहित होना पट्टमहादेवी शान्तला : प
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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