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________________ कहे बिना अपने ही मन में दबाकर रख सकने की शक्ति मुझमें नहीं है। आप लोग भी किसी से न कहें। अपने मन के बोझ को उतारने के लिए मैं कह देता हूँ। यदि आप लोग भी मुझे पागल कहें तो भी कोई चिन्ता नहीं। उस दिन रात को कटवप्र पहाड़ पर आप दोनों ने माथा टेककर बाहुबलि को प्रणाम किया था, याद है?" "हाँ, है।" दोनों ने एकसाथ कहा। कहते हुए दोनों उतरना बन्द कर खड़े हो गये। तब तक वे मन्दिर के द्वार तक नीचे उतर चुके थे। "तभी मैंने एक अद्भुत दृश्य देखा 1 इन्द्रगिरि के बाहुबाल स्वामी की सचेतन मूर्ति अलंकृत होकर जैसे अभी यहाँ चिक्कप्पाजी को जिस रूप में दर्शन हुआ, ठीक वैसे हो दिखाई पड़े और उन्होंने अपने दीर्घ बाहुओं को पसारकर आप दोनों को आशीर्वाद दिया। अम्माजी और चिक्कप्पाजी, आप दोनों का जीवन उस भगवान के आशीर्वाद से एक-दूसरे में समाविष्ट हो, यह मेरी हार्दिक आकांक्षा है। मैं एक साधारण व्यक्ति राजमहल का द्वारपाल मात्र हूँ। मेरी इस आकांक्षा का मूल्य ऑकिंगा कौन? इस तरह से आप लोगों के विषय में आशा भरी आकांक्षा रखने का मुझे क्या अधिकार है ? खैर; इस बात को रहने दें। यह जो मैंने कहा, इसे आप लोग अपने तक ही सीमित रखें। किसी से न कहें।" यह कहकर चकित हो सुनते खड़े उन बच्चों को अपलक देखने लगा। फिर सर्वत्र मौन व्याप गया । शान्तला और बिट्टिदेव का अन्तरंग क्या कहता था सो अन्तर्यामी ही जाने। परन्तु दोनों की आँखें मिलीं। मुंह पर स्नेह के लधु हास्य की एक रेखा खिंच गयी। कोई कुछ न बोला। ज्यों-के-त्यों मौन खड़े रहे। ___ "किसी से नहीं कहेंगे न ? वचन दीजिए!" कहते हुए रेविमय्या ने अपनी दायी हथेली आगे बढ़ायी। शान्तला ने उसके हाथ पर अपना हाथ रखा। बिट्टिदेव ने भी अपना हाथ रखा । रेविमय्या ने उन दोनों के छोटे शुद्ध हाथों को अपने दूसरे हाथ से ढंक लिया और उन्हें वैसे ही छाती से लगाकर कहने लगा, "हे परमेश्वर! ये दोनों हाथ ऐसे ही सदा के लिए हो जुड़कर रहें, यह आश्वासन दें।" कहते-कहते आँखें डबडवा आर्थी। तुरन्त हाथ छुड़ाकर बिट्टिदेव ने पूछा"क्यों, क्या हुआ, रेविमय्या ?।। "कुछ नहीं हुआ। रेविमय्या का हृदय बहुत कोमल है। उसे जब बहुत आनन्द होता है तब उसकी स्थिति ऐसी ही होती है। अब चलें, देर हुई जा रही है। कोई फिर खोजता हुआ इधर आ जाएगा।" शान्तला ने कहा। तीनों नीचे उत्तरे। कोई किसी से बोला नहीं। मौन रहे। बागऊरु तक, दोनों के अलग-अलग होने तक यह मौन बना रहा। हेब्बूर, कडब, तुरुवेकरे होते हुए बाणऊरु पहुँचने में तीन दिन लगे। तीनों दिन सबको मौन रहते देख रेविमय्या ने पूछ ही लिया "यह मौन क्यों?" 96 :: पट्टमहादेवी शान्तला
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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