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________________ ठीक नहीं।" कहकर जोकिमय्या ने अपनी सम्मति प्रकट की। प्रसाद स्वीकार करने के बाद सभी यहाँ से चले और पहाड़ पर से उतरकर अपने मुकाम पर पहुंचे। दोपहर को पाठ-प्रवचन के पश्चात् बिट्टिदेव ने ही बात शुरू की। "गुरुजी, मैं बाहुबलि का दर्शन अब दूसरी बार कर रहा हूँ। कभी पहले एक बार देखा जरूर था परन्तु उस समय मुझपर क्या प्रभाव हुआ था, सो तो याद नहीं। परन्तु मेरी माताजी कभी-कभी उस सम्बन्ध में कहती रहती हैं कि सब जाने को तैयार होकर खड़े थे तो भी मैं और थोड़ी देर देखने के इरादे से जिद पकड़कर वहीं खड़ा रहा था। वे मुझे वहाँ से जबर्दस्ती लाये थे। तब शायद मेरी उम्र चार-पांच साल की रही होगी। मैंने ऐसा हठ क्यों किया सो मुझे मालूम नहीं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती आयी, और तदनुसार ज्ञान भी बढ़ने लगा तो बार-बार नानता की बात सुन-सुनकर एक असह्य भावना उत्पन्न हुई थी। इसीलिए उस दिन मैंने आपसे प्रश्न किया था। परन्तु आज गलि की यह शानदा सदा नमाना संस्कृत नहीं लगी।" खुले दिल से बिट्टिदेव ने कहा। "इस भाव के उत्पन्न होने का क्या कारण है ?" "कारण मालूम नहीं; परन्तु जो भावना उत्पन्न हुई उसे प्रकट किया।" "वह सान्निध्य का प्रभाव है। इसीलिए हमारे यहाँ क्षेत्र-दर्शन श्रेष्ठ माना गया है। हम कहते हैं कि ईश्वर सर्वान्तर्यामी है। उसकी खोज में हमें क्षेत्रों में क्यों जाना चाहिए? जहाँ हम हैं वहीं हमें वह नहीं मिलेगा? यों कहकर व्यंग्य करनेवालों की कमी नहीं है। अब राजकुमार समझ गये होंगे कि सान्निध्य से उत्पन्न भावना और दूर रहकर अनुभूत भावना, इन दोनों में अन्तर क्या है?" ___ "अन्तर तो है; परन्तु क्या जहाँ रहें वहीं भगवान् को जानना न हो सकेगा?" "हो सकेगा। व्यंग्य वचन कहनेवालों को, कहीं भी रहें, ईश्वरीय ज्ञान का बोध नहीं होगा। कुतर्क करनेवालों में निष्ठा और विश्वास का अभाव होता है। जहाँ निष्ठा और विश्वास हो वहाँ ज्ञानबोध अवश्य होता है। परन्तु इसके लिए संयम और सहनशक्ति की आवश्यकता होती है। सबमें दोनों भाव नहीं रहते। इसीलिए क्षेत्र की महत्ता है। ज्ञान के लिए यह सुगम मार्ग है।" "अनुभव से आज यह तथ्य विदित हुआ।" शान्तला दत्तचित्त होकर गुरुदेव और विट्टिदेव के इस सम्भाषण को सुन रही थी। उसने कहा, "गुरुदेव कूड़ली क्षेत्र में जब हम शारदा माई के दर्शन करने गये थे तब वहाँ के पुजारीजी ने जो कहा था, उसे सुनने के बाद मेरे मन में एक शंका पैदा हो गयी। आप सब लोग जब चुप रहे तो बोलना उचित नहीं है, यह सोचकर मैं चुप रही। अब लगता है कि उस विषय के बारे में पूछकर समझने का मौका आया है। क्या मैं पूछ सकती हूँ?" पट्टमहादेत्री शान्तला :: 75
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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