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________________ सर्वजीवहिता, भरतागमद तिल्लेनिसलुभयक्रमनृत्य-(परिणता), लावण्यसिन्धु, भरतागमभवननिहितमहनीयमतिप्रदीपा, दयारसामृतपूर्णा, अनूनदानाभिमानि, विचित्रनर्तनप्रवर्तनपात्रशिखामणि, सकलसमयरक्षामणि, संगीतसंगतसरस्वती, सौभाग्यसीमा, विशुद्धाचारविमला, विनयविनमद्विलासिनी, सदर्थसरससमयोचितवचनमधुरसस्यंदिवदनारित्रिन्दा, सम्यक्त्वचूड़ामणि, विष्णुनृपमनोनयनप्रिया, विद्येयमूर्ति, परिवारफलितकल्पितकुजशाखा, संगीतविद्यासरस्वती, कदम्बलम्बालकालम्बितचरणनखकिरणकलापा, बिणूपिद मे भूमिदेवते, रणव्यापारदोल् बल्गदेवते, जनककेल्लं पुण्यदेवते, विद्येयोल् वाग्देवते, सकलकार्योद्योगदोल मन्त्रदेवते.... __कोई सन्देह नहीं कि वह अनेक विषयों में पारंगत तथा प्रतिभा सम्पन्न थी। मात्र राज्ञी होने से ही उसे उपर्युक्त विशेषण, विरुद प्रशंसा नहीं मिली थी, अन्यथा कर्नाटक की सभी रानियों को क्यों नहीं इस विरुदावली से निरूपित किया गया? पट्टमहादेवी शान्तला में निश्चित ही ये योग्यताएँ रही होंगी। ___ शान्तला एक साधारण हेगड़े (ग्राम प्रमुख) की पुत्री थी। लेकिन अपने विशिष्ट गुणों के कारण वह पट्टमहादेवी बन गयी थी। अगर उपर्युक्त विशेष गुण उसमें नहीं रहे होते तो वह उस स्थान को कैसे सुशोभित कर पाती? उसका व्यक्तित्व निश्चित ही अपने आप में अद्भुत रहा होगा। उसकी विद्वत्ता, ज्ञान, संयम, मनोभावना सभी कुछ विशेष हैं। उसका औदार्य, कलाकौशल एवं सर्वसमदर्शित्व--सभी कुछ सराहनीय। फिर, उसकी धर्मसमन्वय की दृष्टि भी विशिष्ट रही आयी। पिता शुरु शैव, तो माता परम जिनभक्त। वह भी माता की भाँति जिनभक्तिनिष्ठ। विवाह करनेवाला जिनभक्त रहकर भी मतान्तर स्वीकार किया हुआ विष्णु--भक्त । ऐसी परिस्थिति में भी समरसता बनाये रखनेवाला संयम तथा दृढ़निष्ठा कितने लोगों में रह पाती है सच तो यह है कि शान्तला का व्यक्तित्व उसका अपना व्यक्तित्व था। उसके जीवन के चारों ओर बाल्य से सायुज्ज तक, उस समय की कला, संस्कृति, शिल्प, धर्म, साहित्य, जन-जीवन, राजकारण, आर्थिक परिस्थिति, षड्यन्त्र, स्पर्धा, मानवीय दुर्बलताओं का आकर्षण, चुगलखोरी, राष्ट्रद्रोह, राष्ट्रनिष्ठा, व्यक्तिनिष्ठा, युद्ध, भयंकर स्वार्थ, अन्धश्रद्धा आदि अनेकमुखी बन व्यापक होकर खड़े थे। विभिन्नता और वैविध्य से भरे थे। उन वैभिन्य और वैविध्यों में एकता लाने का प्रयास मैंने इस उपन्यास में किया है। साथ ही, वास्तविक मानवीय मूल्यों का भी ध्यान रखा गया है, फलत: लौकिक विचारों के प्रवाह में पारलौकिक चिन्तन भी अन्तर्वाही हो आया है। जकणाचारी ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं थे, ऐसा भी एक मत है। जकण नामक शिल्पी था, इसके लिए प्रमाण हैं । यह उस नाम के शिल्पियों के होने का प्रमाण है न कि इस उपन्यास से सन्दर्भित काल में उसके रहने का। लेकिन जकण और इंकण दस
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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