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"तो क्या यह रिश्ता आपको पसन्द नहीं ?"
"अब तक मेरे मन में ऐसी भावना नहीं थी। परन्तु अब इस कुत्तन्त्र की बात सुनकर लगता है, यह रिश्ता नहीं चाहिए। घर-फोड़ स्वभाववाले लोगों की रिश्तेदारी घराने की सुख-शान्ति के लिए घातक होगी। यह अच्छा नहीं।"
"इतनी दूर तक सोचने की जरूरत नहीं। यद्यपि किसी हद तक यहाँ स्वार्थ है, तो भी जैसा तुम समझती हो वैसे घर-फोड़ स्वभाववाले हैं-ऐसा मुझे नहीं लगता है।"
"आप कुछ भी कहें, मैं इससे सहमत नहीं हो सकती। उनके स्वार्थ को मैं समझ सकती हूँ। परन्तु स्वार्थ के कारण उत्पन्न होनेवाली असूया बड़ी घातक है। नि:स्वार्थ और सरल स्वभाव की उस हेगड़ती और उसकी मासूम बेटी से इस चामचा को डाह क्यों?"
"उसके दिल में ईष्या पैदा हो-ऐसा सन्निवेश ही तुमने पैदा क्यों किया? लोग आँखें तरेरकर देखें-ऐसा काम ही क्यों किया?"
"मैंने कौन-सा गलत काम किया?"
"हम यह तो नहीं कह सकते कि गलत काम किया। लेकिन जो किया सो सबको ठीक लगेगा-ऐसा नहीं कहा जा सकता। राजघराने के परम्परागत सम्प्रदाय में आदर और गौरव स्थान-मान के अनुसार चलता है। निम्न वर्गवालों को उच्च वर्ग के साथ बिठावें तो उच्च वर्गवाले सह सकेंगे?"
तो क्या दण्ड नायक अपनो स्थान को भूल गये हैं।" "वे भूल गये हैं या नहीं, मालूम नहीं। परन्तु महाराजा अब भी स्मरण रखत
"सो कैसे मालूम?"
उन लोगों से पहले बिट्टिदेव और शान्तला जब दोरसमुद्र में पहुँचे, उसके बाद वहाँ राजमहल में, मरियाने दण्डनायक की जो बातचीत महाराजा से हुई, और उसका सारांश जितना कुछ रेविमय्या से मालूम हुआ था, वह पूरा युवराज एरेयंग प्रभु ने अपनी पत्नी को कह सुनाया।
"हमारे महाराजा तो खरा सोना हैं। उनका नाम ही अन्वर्थ हैं। अर्हन! अब निश्चिन्त हुई। तब तो मेरे मन की अभिलाषा पूरी हो सकेगी।" युवसनी ने जैसे स्वयं से कहा। उसके कथन का प्रत्येक शब्द भावूपर्ण था जो एरेयंग प्रभु के हृदयस्थल में पैठ गया।
अभिलाषा ऐसी नहीं थी जो समझ में न आ सके । अभिलाषा का सफल होना असम्भव भी नहीं लगता । परन्तु उनकी दृष्टि में अभी वह सफल होने का समय नहीं आया था।
"तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण होगी परन्तु उसे अभी प्रकट नहीं करना।" युवराज ने
124 :: पट्टमहादेवी शान्तला