Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
## The Nine Tattvas: A Detailed Explanation
**The Nine Tattvas (Substances):**
* **Jiva (Soul):** The living being, characterized by consciousness.
* **Ajīva (Non-Soul):** The non-living, characterized by the absence of consciousness. This includes five categories:
* **Pudgala (Matter):** The fundamental building block of the universe.
* **Dharma (Motion):** The principle of motion and change.
* **Adharma (Rest):** The principle of rest and stillness.
* **Ākāśa (Space):** The principle of space and extension.
* **Kāla (Time):** The principle of time and duration.
**The Seven Derived Tattvas:**
* **Puṇya (Merit):** The positive consequence of the soul's actions, resulting from the accumulation of good karma.
* **Pāpa (Demerit):** The negative consequence of the soul's actions, resulting from the accumulation of bad karma.
* **Āsrava (Inflow):** The continuous inflow of karma into the soul, fueled by attachment, aversion, and delusion.
* **Samvara (Control):** The control of the inflow of karma through the practice of non-violence, truthfulness, non-stealing, chastity, and non-attachment.
* **Nirjarā (Declination):** The gradual decline of karma through the practice of austerities and meditation.
* **Bandha (Bondage):** The binding of the soul to the cycle of rebirth due to the accumulation of karma.
* **Mokṣa (Liberation):** The complete liberation from the cycle of rebirth, achieved through the complete eradication of karma.
**Explanation:**
These nine substances are the fundamental building blocks of the Jain universe. The soul (Jiva) is the primary entity, while the non-soul (Ajīva) provides the material basis for its existence. The seven derived substances are the consequences of the interaction between the soul and the non-soul. They represent the various stages of the soul's journey towards liberation.
**The Interplay of the Tattvas:**
The soul's actions (karma) create the conditions for its future experiences. Positive actions lead to merit (Puṇya), while negative actions lead to demerit (Pāpa). The inflow of karma (Āsrava) fuels the cycle of rebirth. Through the practice of control (Samvara), the soul can gradually reduce the inflow of karma. This leads to the decline of karma (Nirjarā) and ultimately to liberation (Mokṣa).
**The Goal of Jainism:**
The ultimate goal of Jainism is to achieve liberation (Mokṣa) by eradicating all karma and attaining a state of pure consciousness. This is achieved through the practice of non-violence, truthfulness, non-stealing, chastity, and non-attachment.
________________
पंचास्तिकाय प्राभृत
२८१ जीवाजीवौ भावी पुण्यं पापं चास्सवस्तयोः ।
संवरनिर्जराबंधा मोक्षश्च भवन्ति ते अर्थाः ।।१०८।। जीवः, अजीवः, पुण्यं, पापं, आस्रवः, संवरः, निर्जरा, बंधः, मोक्ष इति नवपदार्थानां नामानि । तत्र चैतन्यलक्षणो जीवास्तिक एवेह जीवः । चैतन्याभावलक्षणोऽजीवः स पंचया पूर्वोक्त एव पुनलास्तिकः, धर्मास्तिकः, अधर्मास्तिकः, आकाशास्तिकः, कालद्रव्यं चेति । इमौ हि जीवाजीवौ पृथग्भूतास्तित्वनित्तत्वेन भिन्नस्वभावभूती मूलपदार्थों । जीवपुछलसंयोगपरिणामनिर्वृत्ताः सप्तान्ये पदार्थाः । शुभपरिणामो जीवस्य, तनिमित्तः कर्मपरिणामः पुगलानां च पुण्यम् । अशुभपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुगलानां च पापम् । मोहरागद्वेषपरिणामो जीवस्य, तनिमित्तः कर्मपरिणामो योगद्वारेण पुद्गलानाञ्चालवः । मोहरागद्वेषपार. णामनिरोधो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण प्रविशतां पुदलानां च संवरः । कर्मवीर्यशांतनसमथों बहिरङ्गन्तरंगतपोभिर्वहितशुद्धोपयोगो जीवस्य, तदनुभावनीरसीभूतानामेकदेशसंक्षयः समुपातकर्मपुद्गलानाञ्च निर्जरा । मोहरागद्वेषस्निग्धपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तेन कर्मत्वपरिणतानां जीवेन सहान्योन्यसंमूर्छनं पुतलानां च बंधः । अत्यंतशुद्धात्मोपलम्मो जीवस्य, जीवेन सहात्यन्तविश्लेषः कर्मपुरलानां च मोक्ष इति ।। १०८।।
अन्वयार्थ-( जीवाजीवौ भावौ ) जीव और अजीव—दो भाव ( अर्थात् मूल पदार्थ) तथा ( तयोः ) उन दो के ( पुण्यं ) पुण्य, ( पापं च ) पाप, ( आस्त्रवः ) आस्रव, ( संवरनिर्जरबंधाः ) संवर, निर्जरा, बंध ( च ) और ( मोक्ष: ) मोक्ष ( ते अर्थाः भवन्ति ) वह ( नव ) पदार्थ होते
टीका-यह, पदार्थों के नाम और स्वरूपका कथन है।
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष इस प्रकार नव पदार्थोके नाम हैं।
उनमें, चैतन्य जिसका लक्षण है ऐसा जीवास्तिक ही ( जीवास्तिकाय ही ) यहाँ जीव है । चैतन्यका अभाव जिसका लक्षण है वह अजीव है : वह ( अजीव ) पाँच प्रकारसे पहले कहा हो है-पुद्गलास्तिक, धर्मास्तिक, अधर्मास्तिक, आकाशास्तिक और कालद्रव्य । यह जीव और अजीव ( दोनों ) पृथक् अस्तित्व द्वारा निष्पन्न होनेसे भिन्न जिनके स्वभाव हैं ऐसे ( दो ) मूल पदार्थ हैं।
जीव और पुद्गलके संयोग परिणामसे उत्पत्र होनेवाले सात अन्य पदार्थ हैं। जीवके शुभपरिणाम ( वह पुण्य है ) तथा वे ( शुभ परिणाम ) जिनका निमित्त हैं ऐसे पुद्गलोंके कर्मपरिणाम ( शुभकर्म-रूप ) वह पुण्य है। जीक्के अशुभ परिणाम ( वह पाप है ) तथा वे ( अशुभ परिणाम ) जिनका निमित्त हैं ऐसे पुद्गलोंके कर्मपरिणाम वह पाप है। जीवके